भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्ण-जन्म
बालक का दिव्यातिदिव्य इन्द्रनीलमणि के समान वपु और चन्द्र को जीतने वाला परम मनोहर मुख था। लोकतीत कमल-दल के सदृश नेत्र और कल्पतरु-नव-पल्लव दलों के सदृश हाथ थे। हस्त-पादादि को कुछ चलाते हुए वह अपने मदु, मधुर क्रन्दन से विश्व को मोहित करता था। ‘क्या यह श्यामल प्रकाशों का साम्राज्य या रूप-रत्नाकरों की निधि है, लावण्यभागियों का भाग्य-किंवा तत्तत् अंगावलियों का विलसित सिद्धान्त है’ जब तक नन्दरानी यह विचार ही कर रही थीं, तब तक ‘ओमोम्’ इस तरह रोदन-व्याज से बालक ने उसकी विकल्पपरम्परा को स्वीकार किया। प्रजात पुत्र को देखकर नन्दरानी सखियों को भी न बुला सकीं, फिर और चेष्टित होना तो दूर रहा। प्रेमाश्रुओं से आँखें मिच गयीं, कण्ठ गद्गद हो उठा, वपु स्तब्ध हो उठा, लालन की लालसा से आत्मा व्यग्र हो उठा। जब माया चली गयी, तब लोगों का मोह गया। पुरुषोत्तम के प्राकट्य में व्यवहित नरनारियों के भी मन वैसे ही विकसित हो उठे, जैसे चन्द्रोदय होते ही व्यवहित कुमुदिनियों के भी सुमन खिल उठते हैं। वह बालक केवल नन्दरानी की शय्या पर ही नहीं, अपितु स्निग्धाओं के स्वच्छ चित्तों में भी प्रतिबिम्ब के समान प्रस्फुरित हुआ, अतः वे स्वच्छ शीघ्र ही रोहिणी आदि के संग आकर बालक को वैसे देखने लगीं, जैसे समुदित होते ही चन्द्र को चकोरीगण देखता है। यशोदा यद्यपि प्रेम में स्तब्ध थीं, तथापि स्मेर नेत्रों से बालक को देख रही थीं। व्रजपुर-पुरन्ध्रीगण कल्पना करती हैं- क्या यह नवीन इन्दीवर महान इन्द्रनील है किंवा वैदूर्य है? अहो! यह जो बाल का स्वरूप है, वह मानो मृगमदसौरभ और तमाल-दल से बना हुआ है, अद्भुत लावण्य से अभ्यक्त है, निज देह के तेज से उद्वर्तित है, निज मुखनिर्गत कान्तिसुधा से स्नात है, सौन्दर्य से अनुलिप्त है, त्रैलोक्य-लक्ष्मी से समसलंकृत है। चूर्णीभूत तम के समान इसके केश और चन्द्रबिम्ब के समान इसका मुख है। मानो सबका मन खींचने के लिये ही उसने मूँठी बाँध रखी है। यमुना-तरंग के समान चरण-कमल को चलाते हुए उस बालक को देखकर सब बहुत प्रसन्न हुईं और कहने लगीं- “अहो! इसे शिर पर रखें, नयन में रखें वा हृदय-मध्य में रखें।” बार-बार उस बालक को देखकर भी नहीं तृप्त होतीं। फिर धैर्य से किसी तरह उन्होंने स्नानादि कृत्य सम्पादित किया। श्रीमन्नन्दादि गोपों को कृष्ण के जन्म का समाचार जब प्राप्त हुआ, तब परमानन्द में सब विभोर हो गये। क्या भारत को वह शुभ दिन देखने का सौभाग्य पुनः प्राप्त होगा।? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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