भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शक्ति का स्वरूप
बिना बोध या संविद् के भाव-अभाव दोनों ही नहीं सिद्ध हो सकते। अतः संविद् का अभाव सिद्ध करने के लिये भी संविद्रूप साक्षी की आवश्यकता रहती ही है इसीलिये सर्वभासक स्वप्रकाश होने से चैतन्यरूप है, अबाध्य अव्यभिचारी होने से सत्य एवं नित्य है। मैं कभी न होऊँ ऐसा नहीं किन्तु सदा रहूँ ही। इस तरह प्राणियों के निरतिशय निरुपाधिक पर-प्रेम का आस्पद होने से वह परमानन्दरूप है। साथ ही जब उससे भिन्न सारा ही प्रपंच मिथ्या ही हैा, तब कोई कोई भी उसमें तात्त्विक सम्बन्ध नहीं बन सकता। अतः उसमें असंगता भी स्थित ही है। जब स्वप्रकाश संविद्रूपा भगवती से भिन्न माया और उसका कार्य सभी सत्, असत् और सदसत् विलक्षण अनिर्वचनीय मिथ्या है, तब फिर परिच्छेक (भेदक या मापक) देश-काल-वस्तु न होने से ही अपरिच्छिन्नता (त्रिविधपरिच्छेदशून्यता) भी सहज में ही सिद्ध हो जाती है। यह जो सर्वदृश्यभासक बोध सिद्ध किया गया है, यह आत्मा का धर्म नहीं है, किन्तु आत्मस्वरूप ही है। धर्म मानने पर आत्मा उसका दृश्य होने से आत्मा में जड़ता आ जायगी। ‘‘तच्च ज्ञानं नात्मधर्मे धर्मत्वे जडतात्मनः।’’ यदि ज्ञान स्वप्रकाश आत्मा का धर्म है तो उसकी आवश्यकता ही क्या रहती है? यदि ज्ञान को स्वप्रकाश और आत्मा को जड़ मानें सो भी ठीक नहीं, कारण कि स्वप्रकाश ज्ञान जड़ आत्मा का ही शेष या अंग हो सकता है। लोक में जड़ ही चेतन का शेष होता है यही प्रसिद्ध है। जैसे बोध या ज्ञान जड़रूप आत्मा का धर्म नहीं बन सकता वैसे ही वह चित्बोधरूप आत्मा का भी धर्म नहीं हो सकता। कारण, चित् का चित् से भेद ही नहीं हो सकता, फिर भेद बिना चित्, चित् का धर्मधर्मिभाव कैसे बन सकेगा? इसलिये आत्मा ज्ञानरूप एवं सुखस्वरूप है। यह अवश्य समझने की बात है कि जो ज्ञान और सुख नाम से प्रसिद्ध है वह अनित्य और विनाशी अन्तः- कारण का वृत्तिरूप है। उसी ज्ञानाभास या सुखाभास में अविवेकियों को ज्ञान या सुख का भ्रम होता है। परन्तु इन विनाशी वृत्तिरूप ज्ञान और सुखों का प्रकाशक स्वप्रकाश अखण्ड बोध या ज्ञान ही असली ज्ञान और सुख है। ‘‘ज्ञान अखण्ड एक सीतावर।’’ ‘‘सबकर परम प्रकाशक जोई। राम अनादि अवधपति सोई।’’ ‘‘‘चिद्धर्मत्वं चितो नास्ति चितश्चिन्नैव भिद्यते।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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