भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस समय यह कृष्णग्रह-गृहीतात्मा हो जायगा उस समय वे क्षुद्र ग्रह इसका कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे। किन्तु विषय अतिग्रह हैं। आत्मा पर मनरूप ग्रह चढ़ा हुआ है, उस पर इन्द्रियरूप दश भृत सवार हैं और उन पर भी विषयरूप विकट भूत लगे हुए हैं। इन अतिग्रहों से गृहीत होने पर भला इन्द्रियों की आत्मा की ओर कैसे प्रवृत्ति हो सकती है। पहले हम कह चुके हैं कि स्वयम्भू भगवान इन्द्रियों को बहिर्मुख करके हिंसित कर दिया है। हिंसा किसे कहते हैं? अनभिमत कर्म करना पड़े-यही हिंसा है। इन्द्रियाँ विषयों की ओर जाना नहीं चाहतीं, भगवान ने इन्द्रियों को बहिर्मुख कर दिया। इससे उन्हें बलात्कार उनकी ओर जाना पड़ा। यही उनकी हिंसा है। अतः भगवान कहते हैं- “हे बुद्धियो! ये इन्द्रियरूप बालक विषयों की ओर जाने से रो रहे हैं और परमानन्द-सुधा का पान नहीं कर पाते। इसमें कारण तुम्हीं हो, क्योंकि यदि तुम चंचलता छोड़ दो तो इन विषयों की सत्ता ही न रहे। उस समय ये इन्द्रियाँ जायँगी ही कहाँ? तब तो ये ब्रह्मानन्द-सुधा का ही पान करेंगी। अतः इन्हें शान्त और तृप्त करने के लिये भी तुम मेरा ही चिन्तन करो।” इन्द्रिय और इन्द्रिय वृत्ति बुद्धि की ही अवस्था-विशेष हैं। इसलिये ये उसके बालक ही हैं। जिस प्रकार दर्पण के भीतर अनेक प्रकार के पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं उसी प्रकार शुद्ध चैतन्य-रूप दर्पण में समस्त प्रपंच प्रतिबिम्बित है। दर्पण में जो आकाश की प्रतीति होती है वह वस्तुतः निरवकाश में ही अवकाश की प्रतीति है। दर्पण के अवयव इतने सघन हैं कि उनमें किसी पदार्थ का प्रवेश होना सम्भव ही नहीं है। अतः उसमें जितने समुद्र, नदी, पर्वत एवं वन आदि प्रतीत होते हैं वे सब असत् ही हैं। इसी प्रकार शुद्ध चैतन्य रूप दर्पण में अनेकविध प्रपंच प्रतीत हो रहा है। परन्तु वस्तुतः वह सब केवल स्वयंप्रकाश शुद्ध चेतन ही है। परन्तु उनकी प्रतीति क्यों होती है? यहाँ दो बातें ध्यान देने की हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज