भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
2- यह भी निश्चित बात है कि प्रतिबिम्बित पदार्थों की सत्ता दर्पण के ही अधीन है और वस्तुतः दर्पण को ग्रहण किये बिना हम प्रतिबिम्बित को ग्रहण भी नहीं कर सकते। यह कभी सम्भव नहीं है कि हम तरंग को तो देख लें और जल को न देखे तथा हमें सौरालोक या चन्द्रालोक की प्रतीति तो न हो किन्तु उनसे प्रकाश्य पदार्थों की प्रतीति हो जाय। इसी प्रकार हमें पहले ब्रह्म का ग्रहण होता है और पीछे प्रपंच का; क्योंकि सारे पदार्थ उसी के प्रकाश से प्रकाशित हैं- “तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।” किन्तु इस समय जो ब्रह्म का ग्रहण होता है वह उसके शबल रूप का होता है। उसके शुद्ध स्वरूप का ग्रहण तो प्रपंच की उपेक्षा करते-करते उसकी अप्रतीति होने पर ही होगा; जिस प्रकार कि शुद्ध दर्पण का ग्रहण तभी हो सकता है जबकि प्रतिबिम्ब का ग्रहण न किया जाय। जिस समय बुद्धि प्रपंच को ग्रहण करती है उस समय वह बहुत घबराती है; क्योंकि इसमें सिंह-व्याघ्रादि बड़े-बड़े भयानक पदार्थ भी हैं। लोक में प्रतिबिम्ब से भय होना प्रसिद्ध है। माता बालक को अपनी परछाईं नहीं देखने देती, क्योंकि उसे भय है कि वह उसे वेताल समझकर डर जायगा। स्वकल्पित मिथ्या वेताल से भी मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार यह प्रपंच चिद्रूप दर्पण में प्रतिबिम्बित परछाई है। अतः विवेकवती बुद्धिरूप माता को उचित है कि वह इन्द्रिय और इन्द्रियवृतिरूप अपने बालकों को, उनके कल्याण के लिये, यह प्रपंचरूप परछाई न देखने दे और केवल दर्पण स्थानीय ब्रह्म को ही देखे। यहाँ यह शंका न करनी चाहिये कि प्रतिबिम्ब तो किसी बिम्ब का हुआ करता है; अतः परब्रह्म में जो प्रपंच प्रतिफलित है उसका भी कोई बिम्ब होना चाहिये। दर्पणादि परिच्छिन्न पदार्थ हैं, इसलिये उनमें जो प्रतिबिम्ब पड़ता है वह बिम्ब के ही कारण होता है; किन्तु ब्रह्म तो अपरिच्छिन्न है, उसके पृथक और स्थान ही कहाँ है, जहाँ उसमें प्रतिफलित होने वाला बिम्ब रहेगा। बिम्बभूत जो कोई भी पदार्थ होगा वह देश, काल और वस्तु के अन्तर्गत ही होगा। किन्तु देश, काल और वस्तु को प्रतिबिम्ब के ही अन्तर्गत हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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