भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
परन्तु करें क्या? बहुत कुछ विचार भी करते हैं, तब भी विषय में अपनी ओर आकर्षित कर ही लेते हैं। हम स्वयं उनकी ओर जाने का संकल्प नहीं करते, तथापि जिस समय कोई असाधारण रूप हमारे सामने आता है उस समय नेत्र उसकी ओर खिंच जाते हैं; जिस समय कोई सुमधुर शब्द सुनाई देता है कान वहाँ से हटना नही चाहते; जब कोई दिव्य गन्ध मालूम होती है तो घ्राणेन्द्रिय उसमें फँस ही जाती है तथा जब कोई सुस्वादु पदार्थ सामने आता है तो रसनेन्द्रिय उसका रस लेने ही लगती हैं। ये सब हठात् हमें अपनी ओर खींच लेते हैं। यह सब उस महामाया का ही प्रभाव है। “ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। यह देवी भगवती कौन है? विषय-रूप में परिणत हुई प्रकृति ही वह महामाया है। उसके कारण बड़े-बड़े ज्ञानी तपस्वी और जितेन्द्रिय भी अपनी-अपनी निष्ठा से विचलित हो जाते हैं। नारद, विश्वामित्र और ब्रह्मादि को भी उसने नहीं छोड़ा, फिर हम जैसे साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या है? अतः महापुरुषों का यही उपदेश है कि कोई कैसा ही विवेकी हो उसे सर्वदा विषयों से दूर ही रहना चाहिये; वहाँ उसे अपनी पण्डिताई का भरोसा नहीं करना चाहिये। भगवान शंकराचार्य कहते हैं- “आरूढयोगोऽपि निपात्यतेऽधः संगेन योगी किमुताल्पसिद्धिः।” अतः विषयों के रहते हुए ये बाल-बच्चे तो रोते ही रहेंगे। यदि तुम इनका रोना बन्द करना चाहती हो तो तुम अपने पतिदेव अचिन्त्यानन्द-सुधासिन्धु परब्रह्म का चिन्तन करो। उसमें निश्चल हो जाने पर विषयों की सत्ता ही नहीं रहेगी। इस प्राकर जब विषय ही न रहेंगे तो रोयेंगे किसके लिये? वास्तव में तो इन्द्रिय और इन्द्रियवृत्ति परब्रह्म की ही ओर जाना चाहती हैं, विषयों की ओर जाना इन्हें अभीष्ट नहीं है। परन्तु करें क्या, विषयरूप चुम्बक इसे बलात् अपनी ओर खींच लेता है। इसी से बृहदारण्य-कोपनिषद में इन्द्रियों को ग्रह बतलाया है और विषयों को अतिग्रह। इन्द्रियाँ और मन प्राणी को इसी प्रकार ग्रहण किये हुए हैं जैसे ग्रह अर्थात भूत। उन ग्रहों से गृहीत होकर यह जीव रोता-चिल्लाता है। इन ग्रहों से छूटने के लिये उसे श्रीकृष्णरूप ग्रह की शरण लेनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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