श्रीनारायणीयम्
अष्टनवतितमदशकम्
श्रीकृष्ण! आपका वह जगत्कारणभूत अद्वितीय स्वरूप तत्त्व का विचार करते समय आभूषणों में स्वर्ण तथा घट-शराव आदि में मृत्तिका की भाँति इस समय भी जगत् में प्रकाशित हो रहा है, वही स्वरूप ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर उसी प्रकार स्पष्ट रूप से प्रकाशित हो जाता है, जैसे निद्रा भंग होने पर स्वप्नद्रष्टा का अज्ञानकल्पित प्रपञ्च नष्ट हो जाता है तथा दीपादि द्वारा अंधकार के नष्ट हो जाने पर जीर्ण रज्जु में सर्प की भ्रांति नष्ट हो जाती है। ऐसे स्वरूप वाले आपको नमस्कार है।।7।।
श्रीकृष्ण! जिसके भय से सूर्य उदय होते हैं, अग्नि जलाती है और वायु बहती है तथा ब्रह्मा आदि अन्य देवगण जिससे भयभीत होकर समयानुसार यथोचित पूजा प्रदान करते हैं, जिसके द्वारा वे पहले अपने-अपने स्थान पर नियुक्त किए गये हैं तथा अवधि समाप्त होने पर जिसके द्वारा वे उस स्थान से च्युत कर दिए जाएंगे, उस विश्व के नियन्ता रूप आपको हम लोग भी प्रणाम करते हैं।।8।। |
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज