श्रीनारायणीयम्
चतुर्नवतितमदशकम्
इस जगत् में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो शब्द ब्रह्म (सांग्वेद)- में परिश्रम करने पर भी परब्रह्मस्वरूप आपको नहीं जानते हैं अर्थात् आपकी उपासना नहीं करते हैं। कष्ट है कि उनका वह परिश्रम व्यर्थ ही गया। वे दीर्घकाल तक भक्ति-ज्ञानरूप फलोत्पादन से रहित जल-वितण्डरूप वाणी को धारण करते हैं अथवा प्रसवरहित अतएव दुग्धहीन गौ का पोषण करते हैं। परंतु जिस वाणी में सबको आनन्दित करने वाली, समस्त पापापहारिणी अवतार संबंधी दिव्य लीलाओं का वर्णन नहीं है तथा आपके सच्चिदानन्द स्वरूप का निरूपण नहीं है, उस वाणी को मैं व्यवहार में न लाऊँ।।7।।
भूमन्! आप जिस स्वरूप वाले हैं, आपकी जैसी महिमा है और आप जिस धर्म वाले हैं- यह सब मैं कुछ भी नहीं जानता। इसलिए शिशुपाल के शत्रु! मैं अनन्यभावपूर्वक आपके भजन में ही मन लगाये हुए हूँ। अतः मुझे आपकी प्रतिमाओं तथा आपके चरण सेवी प्रियजनों की सभाओं के दर्शन-स्पर्श आदि का सौभाग्य प्राप्त हो और आपके समग्रोपचारयुक्त पूजन, नमस्कार, स्तवन तथा सत्त्वादि गुणों द्वारा किए गये सृष्टि आदि कर्मों के अनुकीर्तन में भी मेरा मन सादर लगा रहे।।8।। |
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