श्रीनारायणीयम्
एकनवतितमदशकम्
अयि भुवनपते! आपकी माया आपके ब्रह्म-स्वरूप को आच्छादित करके उसे पृथ्वी, जल, वायु आदि के रूप से प्रकट करने वाली है तथा विभिन्न प्रकार के कर्म-समूहों से जिनकी गति पराधीन हो गयी है, उन जीवों को संसार-सागर में ढकेलने वाली है। अयि विभो! वह माया मेरा पराभव न करे। उसकी शांति का एकमात्र उपाय आपके चरणों की भक्ति ही है- ऐसा सिद्धयोगी प्रबुद्ध ने बतलाया है।।9।।
जीवों के दुःखों को देखकर मुझमें प्रभूत विवेक उत्पन्न हो जाय कि ये पुत्र-मित्र, धन आदि दुःख ही देने वाले हैं। फिर मैं सद्गुरु की शरण लेकर उनसे आपके स्वरूप का तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लूँ और आपके गुणों एवं चरितों के कथन से मुझमें भूरितर भक्ति उत्पन्न हो जाय, जिससे मैं उसके प्रभाव से इस माया को पार करके आपके परमसुखमय पादपद्मों के आश्रय में रहकर परमानन्द का अनुभव करूँगा। उस माया-विजय नाटक का यह पूर्वरंग (प्रारंभिक नान्दीपाठ) है। पवनपुरपते! मेरे संपूर्ण रोगों को नष्ट कर दीजिए।।10।।
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