श्रीनारायणीयम्
पञ्चाशीतितमदशकम्
तब अपने पक्षपाती पाण्डवों को उसे मारने से रोककर स्वयं आपने ही अपने दनुजविदारक सुदर्शन चक्र से सम्मुख खड़े हुए शिशुपाल के सिर को धड़ से अलग कर दिया। [ हिरण्यकशिपु, रावण, शिशुपाल- इन] तीन जन्मों तक अनवरत आपकी चिन्तना करने से शिशुपाल की बुद्धि शुद्ध हो गयी थी, अतः वह आपके साथ उस ऐकात्म्य को प्राप्त हुआ, जो योगियों को भी दुर्लभ है।।9।।
तदनन्तर आपकी देख-रेख में जब वह श्रेष्ठ यज्ञ भलीभाँति पूजित होकर समाप्त हुआ, तब समागत जन-समूह ‘श्रीकृष्ण की जय हो, धर्मपुत्र युधिष्ठिर की जय हो’- यों कहता हुआ अपने-अपने घर चला गया। परंतु दुर्योधन तो दुष्ट विचार वाला था, अतः अपने शत्रुभूत पाण्डवों की उस समृद्धि को देखकर उसका मन चंचल हो गया। वह मय दानव द्वारा दी हुई सभा के द्वार पर स्थल को जल और जल को स्थल समझकर सम्भ्रान्त हो गया।।10।। |
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