श्रीनारायणीयम्
द्विसप्ततितमदशकम्
पुण्यात्मा अक्रूर रथ के द्वारा जब आपके निवासस्थान नन्दगाँव को जा रहे थे, उस समय उनके हृदय में आपको लेकर अनेक प्रकार के मनोरथ प्रकट हो रहे थे। उन मनोरथों का बारंबार आस्वादन करते हुए अक्रूर, कोई विघ्न न आ जाय- इस भय से, दैव की प्रार्थना करते जाते थे। इस प्रकार उन्होंने उस मार्ग में कहाँ क्या हो रहा है, यह कुछ भी नहीं जाना।।3।।
‘जिनकी गति का वेदों ने सैकड़ों बार गान किया है, उन परम पुरुष श्रीकृष्ण को क्या मैं देखूँगा? क्या उनका स्पर्श करूँगा अथवा क्या उन्हें हृदय से लगा सकूँगा? क्या वे मुझसे वार्तालाप करेंगे? कहाँ पहुँचने पर उनका दर्शन होगा?’- इस प्रकार उनका मार्ग श्रीकृष्णमय हो रहा था- आपके चिन्तन में डूबे हुए ही वे अपना रास्ता तय कर रहे थे।।4।। |
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