श्रीनारायणीयम्
एकोनसप्ततितमदशकम्
वासुदेव! यहाँ प्रकाशित आपकी रासक्रीड़ा के रससौरभ का समाचार नारद जी के मुख से सुनकर दूर से भी उत्कण्ठित हुई देवमण्डली स्वर्गलोक से एक साथ चलकर वेगपूर्वक आकाश में आ खड़ी हुई। वह देव-समुदाय दिव्य वेष-भूषा और विलास के कारण मनोहर प्रतीत होने वाली सैकड़ों विलासिनियों (सुरांगनाओं) से घिरा हुआ था।।3।।
रासक्रीड़ा के रस का समारम्भ कैसा हुआ, इसका चिन्तन कीजिए। भगवान् वंशी बजाकर मधुर तान छेड़ते, उस पर गोपियों का मनोहर गान होता, गीत के राग और गति की योजना के साथ लुभावना कोमल चरणपात होता और उसके साथ ताल का मेल होने से वह रास-रंग अत्यंत मनोहर प्रतीत होता था। उस रास-नृत्य के समय गोपियों के हाथों के कंगन खनखना उठते, उनका करकमल बार-बार पार्श्वसहचर श्रीकृष्ण के कंधे का सहारा ले लेता तथा नितम्बमण्डल पर लहराती हुई घाँघर उड़ने लगती थी।।4।। |
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