श्रीनारायणीयम्
पञ्चपञ्चाशत्तमदशकम्
तत्श्चात् कूदने के कारण जिसका अंतर्भाग परिक्षुब्ध एवं भँवरयुक्त हो रहा था, उस जल के निनाद से सारी दिशा-विदिशाएं भर गयीं। तब अशान्त तथा क्रोधाभिभूत मन वाला नागराज कालिय जल से ऊपर निकलकर आपके निकट गया।।4।।
सहस्रों ऊँचे-ऊँचे फणों से निरंतर झरने वाले प्रज्वलित अग्निकणों के कारण अत्यंत उग्र विषद्रव धारण करने वाले उस नाग को आपने अपने सामने उपस्थि देखा। वह बहुत से शिखिरों वाले कज्जलगिरि के समान जान पड़ता था।।5।।
अहो! तब प्रज्वलित नेत्र तथा झरते हुए उग्र विषयुक्त श्वासवायु की ऊष्मा से परिपूर्ण उस महानाग ने गुप्त चेष्टा वाले एवं अनन्त बलशाली आपको डँसकर अपने शरीर बंधन से जकड़ दिया।।6।। |
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