- महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 308 के अनुसार क्षर-अक्षर और परमात्म-तत्त्व तथा जीव के नानात्त्व और एकत्त्व का दृष्टान्त, उपदेश के अधिकारी और अनधिकारी तथा इस ज्ञान की परम्परा को बताते हुए वसिष्ठ–करालजनक-संवाद का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
वसिष्ठ द्वारा गुणमयी सुष्टि का वर्णन
वसिष्ठ जी कहते हैं- राजन्! अब बुद्ध (परमात्मा), अबुद्ध (जीवात्मा) और इस गुणमयी सुष्टि (प्राकृत प्रपंच) का वर्णन सुनो। जीवात्मा अपने-आपको अनेक रूपों में प्रकट करके उन रूपों को सत्य मानकर देखता रहता है। वास्तव में ज्ञानसम्पन्न होने पर भी इस प्रकार प्रकृति के संसर्ग से विकार को प्राप्त हुआ जीवात्मा ब्रह्म को नहीं जान पाता। वह गुणों को धारण करता है; अत: कर्तृत्त्व का अभिमान लेकर रचना और संहार किया करता है। जनेश्वर! जीवात्मा इस जगत् में सदा क्रीड़ा करने के लिये ही विकार को प्राप्त होता है। वह अव्यक्त प्रकृति को जानता है, इसलिये ऋषि-मुनि उसे ‘बुध्यमान’ कहते हैं।
तात! परब्रह्मा परमात्मा सगुण हो या निर्गुण, उसे प्रकृति कभी नहीं जानती (क्योंकि वह जड है), अत: सांख्यवादी विद्वान् इस प्रकृति को अप्रतिबुद्ध (ज्ञान शून्य) कहते है। यदि यह मान लिया जाय कि प्रकृति भी जानती है तो यह केवल पचीसवें तत्त्व—पुरुष को ही उससे संयुक्त होकर जान पाती है, प्रकृति के साथ संयुक्त होने के कारण ही जीव संगात्मक (संगी) होता है; ऐसा श्रुति का कथन है। इस संगदोष के कारण ही अव्यक्त एवं अविकारी जीवात्मा को लोग ‘मूढ़’ कह दिया करते हैं। पचीसवाँ तत्त्वरूप महान् आत्मा अव्यक्त प्रकृति को जानता है, इसलिये उसे ‘बुध्यमान’ कहते है; परंतु वह भी छब्बीसवें तत्त्वरूप निर्मल नित्य शुद्ध बुद्ध अप्रमेय सनातन परमात्मा को नहीं जानता है; किंतु वह सनातन परमात्मा उस पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्मा को तथा चौबीसवीं प्रकृति भी भलीभाँति जानता है। तात! महातेजस्वी नरेश! वह अव्यक्त एवं अद्वितीय ब्रह्म यहाँ दृश्य और अदृश्य सभी वस्तुओं में स्वभाव से ही व्याप्त है; वह सबको जानता है। चौबीसवीं अव्यक्त प्रकृति न तो अद्वितीय ब्रह्म को देख पाती है और न पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्मा को। जब जीवात्मा अव्यक्त ब्रह्म की और दृष्टि रखकर अपने को प्रकृति से भिन्न मानता है, तब प्रकृति का अधिपति हो जाता है। नृपश्रेष्ठ! जब जीवात्मा शुद्ध ब्रह्मा विषयिणी, निर्मल एवं सर्वोत्कृष्ट बुद्धि को प्राप्त कर लेता है, तब वह छब्बीसवें तत्त्वरूप पर ब्रह्मा का साक्षात्कार करके तद्रूप हो जाता है। उस स्थिति में वह नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्म भाव में ही प्रतिष्ठित होता है। फिर तो वह सुष्टि और प्रलयरूप धर्मवाली अव्यक्त प्रकृति से सर्वथा अतीत हो जाता है। वह गुणों से अतीत होकर त्रिगुणमयी प्रकृति को जडरूप में जान लेता है, इस प्रकार प्रकृति को अपने से सर्वथा अभिन्न देखने के कारण वह कैवल्य को प्राप्त हो जाता है। केवल (अद्वितीय) ब्रह्म से मिलकर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हुआ अपने परमार्थस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। इसी को परमार्थतत्त्व कहते हैं। यह सब तत्त्वों से अतीत तथा जरा-मरण से रहित है। सबको मान देने वाले नरेश! जीवात्मा तत्त्वों का आश्रय लेने से ही तत्त्व–सदृश प्रतीत होता है। वास्तव में वह तत्त्वों का द्रष्टामात्र होने के कारण तत्त्व नहीं है— तत्त्वों से सर्वथा भिन्न ही है। इस प्रकार मनीषी पुरुष (प्रकृति के चौबीस तत्त्वों के साथ) जीवात्मा को भी एक तत्त्व मानकर कुल पचीस तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं।[1]
तात! यह जीवात्मा वास्तव में तत्वों से अतीत है, अत: पद्रूप नहीं होता है; अपितु ज्ञानवान् होने के कारण ब्रह्मज्ञान का उदय होने पर शीघ्र ही प्राकृत तत्त्वों का त्याग कर देता है और उसमें नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्मा के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। ‘मैं पचीस तत्वों से भिन्न छब्बीसवाँ परमात्मा हूँ। नित्य ज्ञानसम्पन्न और जानने के योग्य अजर-अमरस्वरूप हूँ,’ इस प्रकार विचार करते-करते जीवात्मा केवल विवेक-बल से ही ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। जीव छब्बीसवें तत्व ज्ञानस्वरूप परमात्मा के प्रकाश से ही जडवर्ग को जानता है; परंतु उसे जानकर भी परमात्मा को न जानने कारण वह अज्ञानी ही रह जाता है। यह अज्ञान ही जीव के नानात्वरूप बन्धन का कारण बताया जाता है। जैसा कि सांख्यशास्त्र और श्रुतियों द्वारा दिग्दर्शन कराया गया है। जब जीवात्मा बुद्धि के द्वारा जडवर्ग को अपना नहीं समझता अर्थात् उससे सम्बन्ध नहीं जोड़ता, तब नित्य चेतन परमात्मा से संयुक्त हुए उस जीवात्मा की परमात्मा के साथ एकता हो जाती है। मिथिलानरेश! जब तक जीवात्मा जडवर्ग को अपना समझता है, तब तक जडवर्ग की ही समता को वह प्राप्त होता है। यद्यपि वह स्वरूप से असंग है तो भी प्रकृति के सम्पर्क से आसक्ति रूप धर्मवाला हो जाता है। छब्बीसवाँ तत्व परमात्मा अजन्मा, सर्वव्यापी और संगदोष से रहित है। उसकी शरण लेकर जब जीवात्मा उसके स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है, तब परमात्मज्ञान के प्रभाव से स्वयं भी सर्वव्यापी हो जाता है तथा चौबीस तत्वों से युक्त प्रकृति को असार समझकर त्याग देता है। निष्पाप नरेश! इस प्रकार मैंने तुम से अप्रतिबुद्ध (क्षर), बुध्यमान (अक्षर जीवात्मा) और बुद्ध (ज्ञानस्वरूप परमात्मा)- इन तीनों का श्रुति के निर्देश के अनुसार यथार्थरूप से प्रतिपादन किया है। शास्त्रीय दृष्टि के अनुसार जीवात्मा के नानात्व और एकत्व को इसी तरह समझना चाहिये। जैसे गूलर और उसके कीड़े एक साथ रहते हुए भी परस्पर भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष में भी भिन्नता है। जैसे मछली और जल एक-दूसरे से भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष में भी भेद उपलब्ध होता है। इसी प्रकार प्रकृति और पुरुष की एकता और अनेकता को समझना चाहिये। अव्यक्त प्रकृति का पुरुष से जो नित्य भेद है, उसके यथार्थज्ञान से पुरुष उसके बन्धन से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहा गया है। इस शरीर में जो पचीसवाँ तत्व अन्तर्यामी पुरुष विद्यमान है, उसे अव्यक्त के कार्यभूत महतत्त्वादि के बन्धन से मुक्त करना आवश्यक है, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं। वह यह जीवात्मा पूर्वोक्त प्रकार से ही मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। यही विद्वानों का निश्चय है। यह दूसरे से मिलकर उसी का समानधर्मी हो जाता है। पुरुषप्रवर! जीवात्मा शुद्ध पुरुष का संग करके विशुद्ध धर्मवाला होता है। किसी ज्ञानी या बुद्धिमान् का संग करने से बुद्धिमान् होता है। किसी मुक्त से मिलने पर उसमें मुक्त के- से ही धर्म या लक्षण प्रकट होते हैं। जिसका प्रकृति से सम्बन्ध हट गया है, ऐसे पुरुष से मिलने पर वह विमुक्तात्मा होता है। जो मोक्षधर्म से युक्त है, उसका साथ करने से जीव को मोक्ष प्राप्त होता है।[2]
जिसके आचार-विचार शुद्ध हैं, उससे मिलने पर वह पवित्रकर्मा एवं पवित्र होता है। जिसका अन्त: कारण निर्मल है, उसके सम्पर्क में जाने पर भी निर्मलात्मा और अमिततेजस्वी होता है। अद्वितीय परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करके वह तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है अर्थात् अद्वितीय परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। स्वतन्त्र परमेश्वर से सम्बन्ध रखने के कारण वह वास्तव में स्वतन्त्र होकर वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है। महाराज! मैंने ईर्ष्या- द्वेष से रहित भाव को स्वीकार करके और तुम्हारे प्रयोजन को समझकर तुम से प्रेमपूर्वक इस शुद्ध सनातन एवं सबके आदिभूत सत्यस्वरूप ब्रह्म के यथार्थ तत्व का इस रूप में वर्णन किया है। राजन्! जो मनुष्य वेद में श्रद्धा रखने वाला न हो, उसे इस उत्तम ज्ञान का उपदेश तुम्हें नहीं करना चाहिये। जिसे बोध के लिये अधिक प्यास हो तथा जो जिज्ञासु भाव से शरण में आया हो, वही इस उपदेश को सुनने का अधिकारी है। असत्यवादी, शठ, नीच, कपटी, अपने को पण्डित मानने वाले और दूसरे को कष्ट पहुँचाने वाले मनुष्य को भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। कैसे पुरुष को इस ज्ञान का उपदेश देना और अवश्य देना चाहिये- यह भी सुन लो। श्रद्धालु, गुणवान्, परनिन्दा से सदा दूर रहने वाले, विशुद्ध योगी, विद्वान् सदा शास्त्रोक्त कर्म करने वाले, क्षमाशील, सबके हितैषी, एकान्तवासी, शास्त्रविधि का आदर करने वाले, विवादहीन, बहुज्ञ, विज्ञ, किसी का अहित न करने वाले तथा इन्द्रियसंयम एवं मनोनिग्रह में समर्थ पुरुष को ही इस ज्ञान का उपदेश देना चाहिये। जो इन सद्गुणों से अत्यन्त हीन हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। यह ज्ञान विशुद्ध पर ब्रह्मास्वरूप बताया गया है। वैसे गुणहीन पुरुष को दिया हुआ यह ज्ञान उसके लिये कल्याणकारी नहीं होगा तथा कुपात्र को उपदेश देने से वह वक्ता का भी कल्याण नहीं करेगा। नरेन्द्र! जिसने व्रत और नियमों का पालन न किया हो, वह यदि रत्नों से भरी हुई इस सारी पृथ्वी का राज्य दे तो भी उसे इस ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिये। परंतु जितेन्द्रिय पुरुष को निस्संदेह इस परम उत्तम ज्ञान का उपदेश देना तुझे उचित है। कराल! तुमने मुझे से आज पर ब्रह्म का ज्ञान सुना है; अत: तुम्हारे मन में तनिक भी भय नहीं होना चाहिये। वह परब्रह्म परम पवित्र, शोकरहित, आदि, मध्य और अन्त से शून्य, जन्म-मृत्यु से बचाने वाला, निरामय, निर्भय तथा कल्याणमय है। राजन्! उसका मैंने यथावत् रूप से प्रतिपादन किया है। वही सम्पूर्ण ज्ञानों का तात्त्विक अर्थ है। ऐसा जानकर उसका ज्ञान प्राप्त करके आज मोह का परित्याग कर दो। नरेश्वर! जिस प्रकार आज तुमने मुझसे सनातन ब्रह्मा का ज्ञान प्राप्त किया है; इसी प्रकार मैंने भी हिरण्यगर्भ नाम से प्रसिद्ध सनातन उग्रचेता ब्रह्मा जी के मुख से, उन्हें बड़े रत्न से प्रसन्न करके इसे प्राप्त किया था। नरेन्द्र! जैसे तुमने मुझसे पूछा है और जैसे मैंने तुम्हारे प्रति आज इस ज्ञान का उपदेश किया है, उसी प्रकार मैंने भी ब्रह्मा जी से प्रश्न करके उनके मुख से इस महान् ज्ञान को प्राप्त किया है। यह मोक्ष ज्ञानियों का परम आश्रय है।[3]
वसिष्ठ कथन
भीष्म जी कहते हैं— महाराज! महर्षि वसिष्ठ के बताये अनुसार यह पर ब्रह्मा का स्वरूप मैंने तुम्हें बताया हे, जिसे पाकर जीवात्मा फिर इस संसार में नहीं लौटता। जो इस उत्तम ज्ञान को गुरु के मुख से पाकर भी भलीभाँति समझता नहीं है, वह पुनरावृत्ति (बारंबार आवागमन) को प्राप्त होता है और जो इसे तत्त्वत: समझ लेता है, वह जरा-मृत्यु से रहित पर ब्रह्मा परमात्मा को प्राप्त होता है। तात! नरेश्वर! यह परम कल्याणकारी उत्तम ज्ञान मैंने देवर्षि नारद जी के मुँह से सुना था। जिसे यर्थारूप से तुम्हें भी बताया है। ब्रह्मा जी से महात्मा वसिष्ठ मुनि ने यह ज्ञान प्राप्त किया था। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ से यह नारद जी को उपलब्ध हुआ और नारद जी से मुझे यह सनातन ब्रह्मा का उपदेश प्राप्त हुआ है। कौरवनरेश! यह ज्ञान परमपद है। इसे सुनकर अब तुम शोकका त्याग कर दो। पृथ्वीनाथ! जिसने क्षर और अक्षर के तत्व को जान लिया है, उसमें किसी प्रकार का भय नहीं होता। जो इसे नहीं जानता, उसी में भय रहता है। मूर्ख मनुष्य इस तत्व को न जानने के कारण बारंबार संसार में आता है और हजारों योनियों में जन्म-मरण के कष्ट का अनुभव करता है। वह देव, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि की योनि में भटकता रहता है। यदि कभी समय के अनुसार शुद्ध हो गया तो उस अगाध अज्ञानसमुद्र से पार होकर परम कल्याण का भागी होता है। भरतनन्दन! अज्ञानरूपी समुद्र अव्यक्त, अगाध और भयंकर बताया जाता है। इसमें असंख्य प्राणी प्रतिदिन गोते खाते रहते हैं। राजन्! तुम मेरा उपदेश पाकर इस अव्यक्त, अगाध एवं प्रवाहरूप में सदा रहने वाले भवसागर से पार हो गये हो, इसलिये अब तुम रजोगुण और तमोगुण से भी रहित हो गये हो।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 1-14
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 15-28
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 29-42
- ↑ महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 308 श्लोक 43-51
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| आपत्ति के समय राजा का धर्म
- आपद्धर्म पर्व
आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना
- मोक्षधर्म पर्व
शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना
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