श्रीनारायणीयम्
त्रयोविंशतितमदशकम्
तस्मै मृणालधवलेन सहस्रशीर्ष्णा कुछ ही समय बाद उनकी स्तुतियों से प्रसन्न होकर आप उनके सामने प्रकट हो गये। उस समय आपकी मूर्ति कमल-तंतु-सदृश उज्ज्वल वर्ण की थी, उसमें एक हजार फण थे और स्तवन करने वाले सिद्धगण उसे घेरे हुए थे। तब आप उन पर अनुग्रह करके उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश देकर अंतर्धान हो गये॥7॥ त्वद्भक्त् मौलिरथ सोऽपि च लक्षलक्षं तत्पश्चात् आपके भक्तों में सिरोमणि चित्रकेतु भी प्रसन्न मन से लाख-लाख वर्षों चौदहों भुवनों में विद्याधरियों द्वारा आपके चरित्र का गान कराते हुए स्वच्छ्न्दरूप से सुखपूर्वक विचरण करते हुए। उस समय उनकी आसक्ति नष्ट हो गयी थी॥8॥ |
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