महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अर्जुन का वनवास
वृष्णि वंशी कुल के नेता वसुदेव जी अर्जुन की माता कुन्ती के नाते में भाई थे और इस नाते के कारण ही श्रीकृष्ण तथा अर्जुन को छुटपन ही से मिलने के अवसर प्राप्त हो चुके थे। श्रीकृष्ण भाई तो थे ही, पर साथ अर्जुन के मन के मीत भी थे। फिर भला श्रीकृष्ण प्रभास में अर्जुन का आना सुनकर रुक ही कैसे सकते थे। वे तुरन्त वहाँ पहुँच गए। दोनों मित्र भाई बड़े प्रसन्न हुए। कृष्ण ने अर्जुन से वनवास का कारण पूछा और उन्होंने सब हाल बतलाया। प्रभास से अर्जुन को साथ लेकर कृष्ण द्वारका की ओर चले। रास्ते में रैवतक नाम का एक बड़ा ही मनोहर पहाड़ पड़ता था। श्रीकृष्ण ने द्वारका से चलते समय ही राजकर्मचारियों को वहाँ सब तरह का सुन्दर प्रबन्ध कर रखने की आज्ञा दे रखी थी। जैसे ही प्रभास से चलकर ये लोग रैवतक पर्वत पर पहुँचे तो वहाँ यादव गणतन्त्र के बड़े-बड़े सरकारी अफसर तैनात थे। अच्छे-अच्छे गायक, नर्तकों और नर्तकियों की टोलियां, नट, विश्व के उस्ताद कलाकार और नाटक करने वालों की टोली भी मौजूद थी। श्रीकृष्ण और अर्जुन दो चार दिन वहीं रहे और एक दूसरे से अपने मन की सारी बातें कही सुनी। इसके बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन द्वारकापुरी की ओर चले। रैवतक पर्वत पर दो-चार दिन रुकने के समय श्रीकृष्ण ने एक ठेले से दो शिकार किए थे। एक तो यह कि उन दोनों को वहाँ अकेले में अपने देश की राजनीतिक स्थिति पर बातें करने का अवसर मिल गया और बीच-बीच में हंसने बोलने के भी खूब मौके मिले। इससे दोनों का मन भी बहला। उनके रुकने से सरकारी प्रबन्धकर्ताओं को इतना समय मिला कि दूर-दूर आसपास के गांवों में डुग्गी पिटवाकर लोगों को सूचना दे सकें कि अमुक-अमुक मार्गो से महाबली अर्जुन की सवारी निकलती हुई द्वारकापुरी जायगी। योद्धाओं में भीम और अर्जुन का नाम सारे देश में प्रसिद्ध था। इसलिए रैवतक से द्वारकापुरी तक रास्ते में जगह-जगह सैकड़ों-हजारों लोगों की भीड़ खड़ी होकर अर्जुन की जय-जयकार करते हुए मिलती थी। जगह-जगह श्रीकृष्ण अर्जुन को निकट से देखने के लिए भीड़ ऐसा आग्रह करती थी कि रथ को रोककर दोनों भाइयों को जनता के प्रेम भरे सत्कार को स्वीकार करना पड़ता था। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज