भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
सखि धरित्रि, छिपाओ मत, बतलाओ, बतलाओ, हम भी तुम्हारी ही तरह तपस्या करें। इसी कारण वृन्दारण्य के संस्पर्श से सब भूमि रोमांचित हो गयी। भूमि अपने सौभाग्य पर गर्वीली होकर इठलाती है। जैसे ‘बिनु स्त्रम विन्ध्य बड़ाई पावा’, वही बात यहाँ भूमि के पक्ष में भी है। विन्ध्याचल के एक देश चित्रकूट को श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र के चरण से स्पर्श किया। वहाँ पर तपस्वी वेश से भगवान ने निवास किया। इतने से ही विन्ध्य ने बड़ाई पायी। एक दिन देवर्षि नारद उसके यहाँ पधारे। कहा-तुम तो बहुत पुराने हो, लेकिन सब लोक हिमालय को बड़ा समझते हैं। यह कुछ अटपट-सी बात मालूम होती है। विन्ध्य ने सोचा-मेरु की सूर्य प्रदक्षिणा करते हैं, इसी से उसे लोग बड़ा समझते हैं। तो वही बन्द कर दिया जाय। बस, विन्ध्य बढ़ने लगे। सूर्य भगवान का मार्ग बन्द हो गया। सब धर्म, कर्म, उपासना, अग्निहोत्रानुष्ठान बन्द हो गये। सूर्योदय हो नहीं, तो कुछ हो कैसे? तब सब देवता, ऋषि संत्रस्त होकर अगस्त्य ऋषि की प्रार्थना करने काशी में आये। ऋषि की प्रार्थना कर उन्हीं को भेजा। विन्ध्य अगस्त्य का शिष्य था। उन्हें देखकर उसने खर्वरूप धारण किया, प्रणाम किया। अगस्त्य प्रसन्न होकर बोले-‘जब तक मैं उधर से नहीं लौटता तब तक ऐसे ही पड़े रहो। अगस्त्य दक्षिण समुद्र पर चले गये और विन्ध्य जैसा का तैसा पड़ा रहा। फिर श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र ने जब चित्रकूट पर निवास किया, तब विन्ध्य ने पुनः बिना श्रम उत्कर्ष पाया। उसके शत्रु भी उसकी महिमा गाने लगे। तात्पर्य यह कि भगवान के मंगलमय श्रीचरणों के स्पर्श से वृन्दारण्य ही नहीं, समस्त भूमण्डल सौभाग्ययुक्त हुआ। किंवा “स्वपदयोः रमणं रतिजनकं-स्वपदरमणम्।” भगवान के मंगलमय श्रीचरणारविन्दों को आनन्द देने वाला अर्थात् अतिरम्य भूमि, सुकोमल वालुका, श्यामल-श्वेत दूर्वाएँ एवं अद्भुत, अभिनव पत्र, पुष्प, पल्लवों से वृन्दारण्य भूमि सुशोभित है। जहाँ श्रीकृष्ण के चरणारविन्द जायँ, वहाँ कठोरता न मालूम पड़े, अतः वृन्दारण्य ने अपने को सजा रखा। प्रभु चरणों में कहीं आघात न लगे। ऐसे वृन्दारण्य धाम में भगवान पधारे। जहाँ-जहाँ प्रभु के श्रीचरणाविन्द का विन्यास होता है, वहाँ-वहाँ वृन्दारण्य अपने हृदयकमल को विकसित करता है। भगवान के चरणारविन्द वृन्दारण्य के हृदय पर ही विन्यस्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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