भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
व्रजांगनाओं ने भूमि को देखकर पूछा कि ‘हे धरित्री, तुमने कौन सा तप किया कि श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के निरावरण चरणों का तुम्हें स्पर्श हुआ!
हे सखि धरित्रि, कौन योग, कौन सी आराधना तुमने की जिससे तुम्हें श्यामसुन्दर केशव के श्रीचरणों का स्पर्श हुआ? बताओ तो, हम भी वहीं करें। यदि तुम्हारी तपस्या जान लें, तो युग-युग में वही करें कि कल्पकल्पान्तर में कभी न कभी वह चरण हमें प्राप्त हो। धरित्री ने पूछा-तुमने हमारे इस सौभाग्य की कल्पना कैसे की? व्रजांगना ने कहा-श्रीश्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन के श्रीचरणार विन्दस्पर्श से होने वाला उत्सव हम देख रहीं हैं। आनन्दोद्रेक से आह्लाद में रोमांच होता है। कार्य से ही कारण का अनुमान किया जात है। यह चरणस्पर्श का ही फल है कि तुम्हारे रोएँ खड़े हो रहे हैं। भूमि पर जो वृक्ष, लता, तरु, गुल्म, औषधियाँ, दूर्वाएँ हैं, वही रोमांच है। श्रीकृष्ण परमानन्द के चरणसंस्पर्ष से ही ऐसा आनन्द हो सकता है। धरित्री ने कहा-यह रोमांचरूप लतादि क्या आज ही के हैं? नहीं, ये तो कितने ही दिनों के हैं। व्रजांगनाओं ने कहा- अब के नहीं, न सही। जब भगवान् वामन ने अपने चरणों से तीनों लोक को नापा था, उस समय उन मंगलमय चरणारविन्दों के स्पर्श से यह रोमावली उद्गत हुई होगा। आखिर कारण क्या? कुछ भी कहो, उनके चरणस्पर्श बिना यह रोमांच नहीं हो सकता। ऐसा आह्लाद अन्यत्र कहीं नहीं होता। धरित्री ने फिर कहा-नहीं, ये और पहले के हैं। क्या वामनावतार के पहले वृक्ष-लतादि रोमांच नहीं थे? व्रजांगनाओं ने कहा- ‘आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन’ सखि, तब के भले हो न हों, पर जब हमारे प्रियतम प्राणधन ने वराहावतार लेकर रसातल से तुम्हारा उद्धार करते समय परिरम्भण किया उस समय से यह रोमावली होगी। यह रोमोद्गम ब्राह्मरससंस्पर्श से ही हो सकता है। इसलिये अब नहीं, तो वामनावतार में, तब नहीं, तो वाराहावतार ही में सही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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