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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
मूर्त्तिमती वात्सल्यरसाधिष्ठात्री महालक्ष्मी के समान तथा चलती फिरती तेजोमयी मन्जरी के समान अपने कुल को यश देने वाली श्रीयशोदा धन्य है। इस तरह अपने मधुर चरित्रों से अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्र आत्मारामों को भक्तियोग में लगाने (प्रवृत्त करने) के लिये और नर-लीला रस की रचना से अपने भक्तों को आनन्दित करने के लिये श्रीव्रजराज के भवन में मूर्त्तानन्द श्रीकृष्णचन्द्र प्रकट हुए। मुक्त मुनियों के अभिलषित परमानन्दसार-सर्वस्व श्रीकृष्ण-फल को श्रीदेवरूपिणी श्रीदेवकी ने उत्पन्न किया, श्रीव्रजेन्द्रगेहिनी ने उसका प्रकाशन तथा पालन किया और व्रजांगनाओं एवं तदीय चरणाम्बुजानुरागियों ने उस सुमधुर फल का सम्यक् सम्भोग किया - इतना ही नहीं, यह तो अपने प्रेम से मेरे धैर्य को हिलाये देता है और शरीर में कम्प तथा रोमांच उत्पन्न करता है। हन्त! मैं तो इस बालक का नामकरण करने को आया था परन्तु इसने तो मेरे ही नाम को विलोपित कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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