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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
यद्यपि आनन्द मूर्च्छा के समय सूतिका-भवन में प्रवेश असम्भव था, तथापि स्वयं उपस्थित मूर्तिमान ब्रह्मानन्द चमत्कार ने ही श्रीव्रजराज के श्रीहस्त को पकड़कर सूतिका-भवन में पहुँचाया। फिर भी स्खलन संभव था, अतः समुचित सुकृतसमूह चातुर्य हो आकर्षण करता हुआ सूतिका-भवन की ओर ले चला। इतना ही नहीं, आनन्द-मूर्च्छा के पश्चा उत्पन्न होने वाली उत्कण्ठा ने अपने दोनों हस्तों से पृष्ठ की ओर प्रेरित किया। इस तरह इन सबकी सहायता से सूतिका-भवन में पहुँचकर यशोदोत्संगलालित श्रीकृष्ण को देखकर वे विचार करने लगे कि क्या यह अखण्ड सान्द्रानन्द का बीज है, किंवा जगन्मंगल मंगलोदय का अंकुर है, अथवा सिद्धांजनलता का पल्लव है, या चिरतर-समय-समुत्पन्न सुकृतकल्पमहीरुहाराम का कुसुम है, अथवा समस्त उपनिषत् कल्पलता श्रेणी का सुन्दर फल है, किंवा व्रजेश्वरी की श्रीअंग रूपा अपराजितालता का ही कुसुम है। इस तरह अभिनव बालक को देखकर श्रीनन्दराय मानों सर्वमनोरथ-सम्पत्ति से सिद्ध हो गये, आनन्द साक्षात्कार चमत्कार से विक्षिप्त हो गये या लिखित चित्र की तरह जड़ीकृत हो गये। इस प्रकार प्रथम आनन्द-मूर्च्छा में प्रसुप्त होने के बाद श्रीकृष्ण-दर्शन-सुख का अनुभव कराने के लिये चेतना देवी ने ही इन्हें प्रतिबाधित किया। उज्जृम्भमाण विपुल आनन्द से पुलाकवली और आनन्द वाष्पकणनिकर-निपात आदि से लक्षित किसी अलौकिक दशा को प्राप्त होकर सनन्द-उपनन्द, सन्नन्द आदि तथा विप्रगण सहित पुरोधस से जातकर्मादि संस्कार कराकर अपार सम्पत्ति रत्न-मणि-भूषण-वसन-गोधनादि का उन्होंने दान दिया। श्रीमन्नन्दराय के दान-काल में चिन्तामणि, कल्पतरु, कामधेनुओं के समुदाय शक्तिहीन से हो गये, रत्नाकरों में नाना मत्स्यादि मात्र ही शेष रह गये, किंबहुना त्रैलोक्य-लक्ष्मी के भी पास लीला-कमल ही अवशिष्ट रहा। श्रीव्रजराजकुमार श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, यह मंगलमय ध्वनि मूर्खोमुख, मार्गो-मार्ग, कानों-कान सर्वत्र फैल गई और सब सोचने लगे कि श्रीयशोदा अद्भुत कल्पलता है कि जिसमें भगवत्प्रकाशरूप दिव्य फल प्रकट हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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