भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
भगवान ने कहा- ‘अच्छा, इनके कुटुम्बभर को अपने को दे डालूँगा।’ फिर ब्रह्मा ने कहा- ‘हे देव! पूतना का क्या कोई बचा था? अघासुर, बकासुर सब तो आपको पा गये। रावण भी तो सकुटुम्ब आपको पा गया।’ अन्त में भगवान को कहना पड़ा- ‘अच्छा ब्रह्मन! मैं इनका ऋणी ही रहूँगा।’ सारांश यह कि भगवान का मधुर, मनोहर, मंगलमय स्वरूप स्वतः फलस्वरूप है। भगवान के श्रीपादारविन्द-नखमणिचन्द्रिका की दिव्य द्युति का ध्यान करना ही परम फलस्वरूप है। कुछ लोग भगवान के श्रीचरणारविन्द को साधन मानते हैं, पर उच्चकोटि के भक्तगण प्रभु के सौगन्ध्यामृतसिन्धु श्रीचरणारविन्द में अनन्य भक्ति को ही परप्रेमरूपा, स्वतःसिद्धा, भगवान की परमान्तरंगा शक्तिरूपा मानते हैं- “साधन-सिद्धि रामपद नेहू।” भक्ति साधन और साध्यरूप से दो प्रकार की होती है। जैसे- अपक्व आम्र पक्व आम्र का हेतु होता है, वैसे ही साधनरूपा भक्ति का साध्यरूपा भक्ति के साथ साध्यसाधनाभाव होता है। सर्वाभिलाषवर्जित, ज्ञान और कर्मों से असंस्पृष्ट, अनुकूलता श्रीकृष्ण का अनुस्मरण ही ‘भक्ति’ है-“सर्वाभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्। इन सिद्धान्तों में भक्ति ही सब कुछ है, उसके लिये ही समस्त साधन हैं, ज्ञान और मोक्ष आदि उसमें विघ्न हैं। भक्तजन भुक्ति, मुक्ति और विरक्ति सबको तिलांजलि देकर भक्ति को ही चाहते हैं। इसीलिये बड़े-बड़े अमलात्मा परमहंस, महामुनीन्द्रगण भी अद्वैत, अनन्त, अखण्ड ब्रह्म से मन हटाकर सगुण, साकार भगवान में मन लगाते हैं। प्रभु के श्रीचरणारविन्द-सौगन्ध्यामृतसिन्धु के एक बिन्दु से भी समास्वादन करने से सनकादिक, शुकादिक जैसे ब्रह्मनिष्ठ महामुनीन्द्र भी मुग्ध हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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