विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
अंगुष्ठ के चक्र के अधोभाग में तीन चिह्न हैं- पर्व में यव, मूल में चक्र और नीचे की ओर ताप निवारक छत्र है। मध्यमांगुली के मूल में कमल है। यह अति शोभन है। यहाँ ध्याता का मन-मधुप मुग्ध हो जाता है। इस कमल के नीचे ध्वज है जिसके अनुसन्धान से सब अनर्थों का नाश होता है। कनिष्ठिका के मूल में वज्र है जिसके ध्यान से भक्तों के पाप पर्वत नष्ट हो जाते हैं। एँड़ी के मध्य में अंकुश है जो भक्तचित के मत्तगयन्द को वश करने वाला है। श्रीभगवान के दक्षिण पाद का परिमाण लम्बाई में 14 अंगुल है और चैड़ाई में छः अंगुल है। पद के मध्य भाग में 4 अंगुल स्थान में कलश-चतुष्टय हैं और उनके अगल-बगल 4 जम्बूफल हैं। अधोभाग में द्वितीया का चन्द्र अंकित है जो भक्तों के शुभ का सूचक है। उससे भक्त के आह्लाद की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। चन्द्रमा के नीचे गोपदी है जो भवसागर को गोपद के समान कर देता है। अर्थात भगवत्समाश्रयण करने वाले भवसागर को गोपद के समान बिना प्रयास ही पार कर जाते हैं। श्रीभगवान के वामापादांगुष्ठ के मूल में दिव्य शंख है। उसका ध्यान करने से पार्थिक जड़त्व दूर होता है और सब मल धुल जाते हैं तथा ऋक्, साम, यजुरादि शुद्धातिशुद्ध मानसी-वृत्तिरूपा समस्त विद्याएँ ऐसे स्वच्छ अन्तःकरण में प्रस्फुरित होती है जैसे कि ध्रुव के कपोल में शंख स्पर्श होते ही उसे समस्त विद्याएँ एक क्षण में प्राप्त हो गयीं। वामचरण की मध्यमाँगुली के मध्य में अम्बर का अनुसन्धान है। अम्बर (आकाश) जैसे असंग है वैसे ही इसके ध्यान से ध्याता का चित्त भी विषय-राग से विमुक्त और असंग होकर व्यापक परब्रह्माकाराकारित हो जाता है। वामपादारविन्द में चार स्वस्तिक हैं, ये सकल शुभ के सूचक हैं। स्वस्तिकों के बीच में अष्ट कोण हैं। किसी के मत से यह अष्ट-महासिद्धियों के देने वाले हैं और किसी के मत से यह अष्ट लोकपाल हैं जो यहाँ भक्तों की प्रतीक्षा किया करते हैं। वामपाद की कनिष्ठिका में सूर्य-तत्त्व अंकित है जिसके अनुसन्धान से अनेक प्रकार के ध्वान्त तिरोहित होते हैं। वामपादारविन्द में ज्यारहित इन्द्रधनुष का अनुसन्धान है। धनुष के पीछे चार कलश हैं। इनके बीच में त्रिकोण है जो त्रिलोकैश्वर्याधिकार सूचित करता है। त्रिलोकैश्वर्य की प्राप्ति के लिये इस त्रिकोण का अनुसन्धान है। पर भगवद्भक्ति जिनमें पूर्ण होती है वे भगवान को छोड़ त्रैलोक्य के पीछे नहीं भटका करते। परम भक्त तो वही है जिसकी भक्ति गंगा की धारा अनवरत श्रीकृष्णचन्द्र रूप आनन्दसुधा-सिन्धु की ओर ही प्रावाहित होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज