विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
परम भावुकों के परमाराध्य ये ही पादारविन्द हैं। मुनीन्द्रों के मन-मधुप इन्हीं चरणाम्बुजों का आश्रयण करते हैं। ये ही परमहंसास्वादित चरण हैं। इन्हीं चरणार-विन्दगत तुलसी-सौगन्ध्य के वायु से संसृष्ट होकर सनकादि मुनीन्द्रों के हृदय में प्रविष्ट होने से, उनके भी तन-मन-प्राण क्षुब्ध हुए और भगवान के चरणों की ओर उनको राग हुआ। इसी दिव्य क्षोभ से सात्त्विक अष्टभाव प्रादुर्भत होते हैं। भगवान के अन्य अंगों ने मुनीन्द्रों को इतना नहीं मोहा जितना कि चरणाम्बुजों ने। इन चरणों की दिव्य सौगन्ध्यमय शोभा पर वे मानों बिक गये और उन्होंने यही प्रार्थना की कि हमारा यह मन मतभृंग के समान आपके चरणारविन्द में लालायित रहकर सदा यह दिव्य मकरन्द पान करता रहे। भगवान के चरणतल दिव्य कमल पर न्यस्त सुशोभित हैं। विशुद्ध सत्त्व ही यह कमल विशुद्ध अन्तःकरण पर ही तो भगवान का प्रार्दुभाव होता है। सुकोमल कमल की अति कोमल पंखुड़ियों की अनन्त कोटि गुणित सुकोमलता भी महालक्ष्मी के चरणाम्बुजों की सुकोमलता की बराबरी नहीं कर सकती। महालक्ष्मी के कर-कमलों की सुकोमलता उससे भी सूक्ष्म है और उससे भी कहीं अधिक सूक्ष्म भगवान के चरणों की सुकोमलता है, जिसकी किसी प्राकृत उपमान से कल्पना नहीं हो सकती। हाँ, इन उपमानों से कल्पना करने में सहायता मिलेगी, यथार्थ बोध तो भगवत्कृपा से ही सम्भव है। श्रीभगवान के चरणचिह्न अलौकिक श्रीशोभा और सौन्दर्य-स्वरूप हैं। जिस किसी ने इन चरणचिह्नों का सान्दर्य देखा, उसी की दृष्टि सदा के लिये उनमें स्थिर हो गयी। भगवान के भक्त इन्हीं चरणचिह्नों को देख-देखकर अपने कामादि दुर्भावों को नष्ट करने में समर्थ होते हैं। ये चिह्न किसी आचार्य के मत से 15, किसी के मत से 16 और किसी के मत से 19 हैं। श्री भगवान के दक्षिण पादाङ्गुष्ठ में एक दिव्य चक्र है। इस चक्र के ध्यान से चिद्ग्रन्थि का छेदन होता है। अंगुष्ठ के पर्व में यव का ध्यान है, जो सुख-सम्पदा का देने वाला है। अंगुष्ठ और तर्जनी के बीच में से चरण के मध्य तक एक ऊर्ध्व रेखा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज