विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
भगवदीय कथासुधा का पान करते-करते कुछ काल में भगवत्कथा से अनुराग होता है और यह अनुराग बढ़ते-बढ़ते प्रभु-चरणों में अनन्य हो जाता है। ऐसी अनन्य भक्ति जिसे प्राप्त हुई वह लवनिमेषार्ध के लिये भी त्रैलोक्यैश्वर्य के लिये भी प्रभु चरणों से पृथक् नहीं होता। त्रिकोण से दूसरा अभिप्राय त्रैगुण्य-विषय भी ले सकते हैं - ”मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। अथवा यह कहिये कि ऋक्-साम-यजुः इन तीनों वेदों से प्रतिपाद्य जो तत्त्व हैं, उसकी प्राप्ति का यह सूचक है- “वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यः।” मनोवाक्काय तीनों से भगवान ही वन्द्य हैं और तीनों अवस्थाओं में भी वही एक आराध्य हैं। ऐसी अनेक प्रकार की कल्पनाएँ इस विषय में भावुक कर सकते हैं। श्रीभगवान के चरणचिह्न श्रीविष्णुपुराण में 15 ही मिले। जीव-गोस्वामी आदि आचार्यों ने 19 निश्चित किये हैं। श्रीचरणों के अंगुलादि परिमाण भी हैं। इन परिमाणों को देखें तो 16 ही चिह्न रहते हैं। श्रीभगवान के रूप और वर्ण आदि की भावना के अनुसार ही कल्पना करनी चाहिये। सगुणरूप में भगवान स्वतन्त्र नहीं होते- भक्त भावना के अधीन होते हैं; क्योंकि भक्त की भावना-सिद्धि के लिये ही उनका प्रादुर्भाव होता है। स्वयं ब्रह्मा जी ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा है कि- ”यद् यद् धियात उरुगाय विभावयन्ति, ”ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज