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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के निदान भगवान और भगवान के निदान भक्त। इसलिये सर्वजगन्नियामक भक्त ही हुए। ये यदि श्रीभगवान के पदचिह्नों को जरा इधर-उधर कर दें तो ऐसा करने में वे स्वतन्त्र हैं। वे जो भी कल्पना करेंगे वह सत्य है। वह कल्पना सत्य होती है इसी से तो भक्तों की कल्पना के अनुसार भगवान नित्य नये रूप में प्रकट होते हैं। मनुष्य के मन को यह स्वभाव है कि वह नित नई बात चाहता है। इसलिए भावुकों को नित्य नूतन कल्पना करनी आवश्यक ही है। भगवान के रूप ही नहीं, भगवान के चरित्र भी भावुकों को नित्य नवीन प्रतीत होते हैं। “तस्यांघ्रियुगं नवं नवम्।” श्रीभगवत्तत्त्व तो अनन्त है। जैसे-जैसे जिसका मन विशुद्ध होता जाता है वैसे-वैसे नव-नव रूप-चमत्कृति देखने को मिलती है। भगवान के दिव्य मंगलमय विग्रह में नित्य नवीन कल्पना करने में सच्चे भावुक स्वतन्त्र हैं। उन्हें भगवान के भूषणवसनादि में नित्य नई-नई कल्पना करनी ही चाहिये। सगुण उपासकों के लिये यह आवश्यक है। जैसे, भगवान के पीतपट को कहीं विद्युत् का उपमान दिया गया है तो कहीं कदम्ब-किंजल्क की सी आभा बताई गई है और कहीं रविकिरण की उपमा दी गई है। इसी प्रकार नखमणि कहीं मुक्तापंक्ति हैं तो कहीं नीलिमा, अरुणिमा और स्वच्छता के दिव्य सम्मेलन का ध्यान है और कहीं उसमें अंगूठियों की दीप्तिमत्ता भी मिली हुई है और नखमणि-मण्डल की ज्योत्स्ना ऊर्ध्व में उच्छ्वसित हो रही है। भगवान के श्रृंगार के सम्बन्ध में इसी प्रकार आठों याम की अष्टविध कल्पनाएँ हैं। भगवान का रूपसौन्दर्य-माधुर्य प्रतिक्षण नवीन होता रहता है, इसलिये कम से कम 8 पहर में 8 बार तो नवीन कल्पना करनी ही चाहिये। इसी प्रकार मुक्ता-माल, गुंजा, किरीट, मयूरपिच्छ आदि के विषय में बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ भक्तों ने की हैं। भगवान का मयूरपिच्छ-विनिर्मित मुकुट बंक होता है, अर्थात कहीं दक्षिण और कहीं वाम ओर झुका रहता है। यह दक्षिण-वाम ओर का बाँकपन श्रीकृष्ण और श्रीराधिका जी का परस्पर स्वात्मार्पण सूचित करता है। दोनों के आभूषण परस्पर स्वात्मार्पण का भाव लिये हुए रहते हैं। आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीवृषभानुनन्दिनी के परस्पर स्वात्मार्पण और मिलन के अनेक भाव हैं। श्रीवृषभानुनन्दिनी के बिना श्रीकृष्णचन्द्र का ध्यान पूर्ण नहीं, क्योंकि श्रीराधिका जी का सौन्दर्यमाधुर्य ही श्रीकृष्णचन्द्र का दृग्विषय है। उसका वर्णन सनकादि मुनीन्द्र भी नहीं कर सके। वह वर्णनातीत है। श्रीराधिका जी का गौर तेज श्रीकृष्णचन्द्र की श्याम कान्ति में और श्रीकृष्ण की श्यामकान्ति श्रीवृषभानुनन्दिनी की गौर कान्ति में भावुकों के देखने की वस्तु है। अस्तु, इस प्रकार युगल मूर्ति का नानाविध भावों से अनुसन्धान करते-करते मल सर्वथा धुल जाने पर विशुद्ध अन्तःकरण में भगवत्स्वरूप का प्राकट्य होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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