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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
और एक सखी कहती है- “इत उत देखे मति चैथ को चन्दा तोय देखे ते कलंक मोय लग जाएगो।” इतना ही नहीं, वह श्यामसुन्दर चित्त से निकल जाये, इसके लिये दोषानुसन्धान करती हैं। जिसके नामस्मरण मात्र से दोष नामशेष हो जाते हैं, प्रेमोन्माद में व्रजांगना उसमें दोष ढूंढ़ती हैं- “मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम्। सखि! ये तो सदा के छलिया हैं, देखो, रामावतार में, लुब्धधर्मा अथवा अलुब्धधर्मा होकर मृगयु-बहेलिया की तरह निपराध बालि को मारा; छिपकर, पेड़ की ओट लेकर बालि का वध किया[2], और इनकी बहादुरी तो देखो सखि! स्त्री पर इन्होंने हाथ उठाया, प्रेम करने के लिये बेचारी शूर्पणखा इनकी उदारता सुनकर पहुँची थी, उसे यह वर दिया कि नाक-कान काटकर बेचारी को विदा किया। क्या कहें सखि! स्त्रीजितों को कुछ विचार थोड़े ही रहता है। वे जानकी के प्रणयोन्माद में इतने प्रमत्त थे कि उन्हें धर्मशास्त्र तक नहीं स्मृत रहा, विरूप कर दिया एक सुन्दरी स्त्री को। सखि! कोई एक अवतार की बात हो तो कहें, इनके तो जन्म-जन्म की ये ही करतूतें हैं- देखो, वामन अवतार में इन्होंने बलि को छला। ‘बलि’ को खाकर कौए की तरह इन्होंने सर्वस्व समर्पयिता बलि को, उसका सर्वस्व हरण करके भी उसे नागपाश में बाँध लिया। सखि! यह क्या न्याय है? इसलिये कालों से, कुटिलों से सम्बन्ध जोड़ना, सख्यभाव करना अब हम छोड़ देंगी। पर क्या करें, उनका कथा रूप अर्थ हाय! छोड़ा ही नहीं जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10 स्कं., 47 अ., 17 श्लोक
- ↑ लुब्धधर्मा=व्याध के जैसे क्रूरता, निर्दयता आदि धर्मों को क्षत्रिय होकर भी इन्होंने ग्रहण किया। भयावह परधर्म को लेकर पात तक किया। फिर व्याध तो मांस भोजन की इच्छा से हरिण आदि को मारता है। परन्तु इन्होंने इसलिये बालि को नहीं मारा, वृथा ही मारा, अतः ये बड़े कठिन हैं-अलुब्धधर्मा हैं।
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