नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. विप्रपत्नी ऋतम्भरा-बाबा लौटे
कोई आता दीखता है, किसी वृषभ के गले की कण्ठ-ध्वनि आती है तो बालिकाएँ दौड़ती हैं द्वार की ओर। उनका ही क्या दोष? दौड़ती तो हैं यशोदा और मैं स्वयं दौड़ती हूँ-व्रजराज आये?' 'काक! कहो, उड़कर बतलाओ कि मेरा लाल आ रहा है? मैं तुम्हें मधु-मिश्रित दूध-भात दूँगी।' व्रजरानी दिन भर पता नहीं किन-किन से सगुन पूछती हैं। मनौतियाँ करती हैं व्रज में सभी देवताओं की देवियों की। मैंने अपने स्वामी से कहा-'आप कोई अनुष्ठान क्यों नहीं करते? सुना है, आप सविधि आकर्षण करने में समर्थ हैं।' 'पगली मत बनो! नन्दनन्दन के स्मरण से अभिचार-प्रयोग प्रभाव-शून्य हो जाते हैं।' स्वामी ने कहा- 'मैं तन्त्रों के सब प्रयोग जानता हूँ- यह सत्य है। जीवन में कभी उनका आश्रय नहीं लिया; किंतु इस समय अवश्य करता, यदि तनिक भी सफलता की सम्भावना होती। वे सर्वसमर्थ जो चाहेंगे, वही होगा। श्रीहरि की शरण लो।' पुरुषों की पूरी बात समझ पाना कठिन है और उसमें भी मेरे स्वामी तो वेदज्ञ महामुनि हैं। मैं उनकी बातें बहुधा नहीं समझ पाती; किंतु श्रीहरि तो अब हम सबके शरणद हैं ही। व्रजराज को अपने कुमार के साथ वे कृपामय शीघ्र लौटा दें। नन्दराय लौटे-सायंकाल का अन्धकार हो जाने पर व्रजेश्वर का शकट द्वार पर आया। मैं दौड़ी यशोदा के पीछे; किंतु हृदय धक से हो गया। इतनी नीरवता के साथ, इतने चुपचाप यह आगमन? गोपों के शकट साथ नहीं? कोई बालक क्यों नहीं बोलते? मैंने देखा कि मौन, कान्ति-हीन, शिथिल-गात्र नन्दराय को उनके छोटे भाई ने सम्हाल रखा है। यशोदा ने जाते ही कर पकड़कर झकझोरा- 'महर क्या हुआ तुम्हें? नीलमणि कहाँ है? बालक कहाँ हैं? गोप कहाँ हैं सब?' 'गोप और बालक सब अपने-अपने गृहों को चले गये भाभी!' नन्दन भरे कण्ठ कह गये- 'तुम्हारा तोक और भद्र भी आज घर चले गये!' 'भद्र घर गया? नीलमणि साथ गया उसके?' यशोदा ने आश्चर्य से पूछा। |
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