नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. गणेश-गोचारण
मैं देख सकता हूँ कि भगवती श्री स्वयं समस्त सिद्धियों को लिये सेवामें लगी हैं। मेरी माता अन्नपूर्णा व्यस्त हैं; किंतु सब सावधान हैं- किसी गोपी को, गोप को इनकी उपस्थिति का आभास हो जाय तो सेवा का सौभाग्य समाप्त ही हो जायगा। गृहों में, गोष्ठ में, पथों में पूरी रात्रि प्रकाश प्रज्वलित किये सब व्यस्त रहे। सर्वत्र आवागमन-कोलाहल व्याप्त रहा। व्रजराजकुमार सखाओं के साथ बहुत रात्रि बीते बार-बार मैया के अनुरोध पर विश्राम करने को प्रस्तुत हुए। सब सखा आज नन्द-भवन में ही रात्रि-भोजन करके सोये। बहुत रात्रि तक सब गोष्ठों में, मण्डप में दौड़ते भागते रहे थे। सबकी जिज्ञासा- सबको आज ही जान लेना था- 'यह क्या है? यह क्यों बनाया गया? इसका क्या होगा? यह कहाँ लगेगा? अमुक देवता की वेदी कौन-सी? महर्षि या बाबा कहाँ बैठेंगे? कपिला या धर्म कहाँ खड़े होंगे?' बालकों के अनन्त प्रश्न हैं; किंतु उन्हें ही आज पूरा उत्तर सुनने का अवकाश नहीं था। कुछ पूछा, कुछ सुना और अन्यत्र दौड़ गये। किसी प्रकार रात्रि में सोये भी तो सब ब्रह्म-मुहूर्त्त में ही जाग गये। श्रीकृष्णचन्द्र ने सबसे पहिले उठकर पूछा माता रोहिणी से- 'सबेरा हो गया?' सखाओं को व्रजराजकुमार ने जगा दिया- 'अब उठो! अपनी गौयें हम लोग स्वयं सजावेंगे।' आज तो सर्वत्र पथ में प्रकाश है। गोप-गोपियों का आवागमन है सब ओर। बालकों को अपने गृहों तक कोई पहुँचाने जाय, इसकी अपेक्षा ही नहीं। श्रीव्रजेश्वरी रोकें, प्रबन्ध करें, इसके पूर्व ही सब भाग गये। अरुणोदय के साथ ही शंख-ध्वनि हुई और तत्काल श्रृंग, दुन्दुभियाँ बजने लगीं। गायों ने हुंकार की। गायें, वृषभ, बछडे़ सब स्नान कराके अलंकृत किये जा चुके हैं। सबके शरीर रत्नजटित झूलों से सजे हैं। खुर रजत-मण्डित हैं और श्रृंगों पर स्वर्णावरण है। कण्ठों में मणि-मालाओं के मध्य स्वर्ण-घण्टिकाएँ हैं। वृषभ, गायें, बछडे़ सब गोष्ठों से निकले और वाद्य-ध्वनि के साथ मण्डप के समीप पहुँचकर शान्त खडे़ हो गये। बछडे़ तक आज केवल कभी-कभी सिर मात्र हिला लेते हैं। |
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