नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
महर्षि अष्टावक्र के शाप से यह असुर कुमार एक कोस लम्बे शरीर का अजगर बन गया। कंस की दिग्विजय यात्रा में वन में इसने उसे लपेटा तो कंस ने इसे इतना मर्दित किया कि मरने लगा। इसे मथुरा ले आया वह अपने कण्ठ में लपेटकर माला बनाकर। महर्षि इसके परित्राण के लिए मलय-पर्वत पर परमपुरुष से प्रार्थना कर रहे हैं युगों से। आज यह कंस की प्रेरणा से यहाँ आया है। कंस अघासुर की व्रज भेजकर अपने असुर साथियों के साथ आज अशंक अटृहास कर रहा है। वह समझता है कि यह उसे लौटकर सफल होने का समाचार देगा। अघ के अधिष्ठाता को अहिंसा तो प्रिय नहीं होगी? अजगर का आहार ही प्राणी है और व्रजराजकुमार ने तो इसके अग्रज बक तथा बड़ी बहिन पूतना को मार दिया है। यह अपने बड़े भाई-बहिन का बदला लेने व्रज आया है। इसका क्रोध-आक्रोश और सबसे बड़ी बात कि इन मयूर मुकुटी पुरुषोत्तम को महर्षि अष्टावक्र की प्रार्थना भी तो पूर्ण करनी है। यह अजगर पता नहीं कब किधर से सरकता आया है और यहाँ पूरा मुख खोलकर मार्ग में पड़ गया है। इसी को देखकर देवता आशंकित हुए। बालकों ने भी देखा अजगर को और कुतूहल वश समीप पहुँच गये। भय क्या होता है, इससे सर्वथा अनमिज्ञ ये शिशु! इन्होंने सुना भी नहीं कि कोई इतना बड़ा महासर्प भी होता है। 'यह क्या है?' बालकों में जिज्ञासा उठी। 'यह पर्वत की गुफा है; किंतु कैसी सर्प के मुख के समान है! भद्र ने कहा। 'सचमुच। सर्प की दाढ़ों के समान इसमें उज्ज्वल श्रृंग हैं।' सुबल ने झाँककर देखा- 'सर्प की फटी जिह्वा के समान इसमें दो मार्ग हैं भीतर जाने को।' 'इसका नीचे का भाग वन धातु से लाल है और सूर्य किरणों के पड़ने से ऊपर का भाग उसके प्रतिविम्ब से लाल हो गया है।' ऋषभने गम्भीर होकर कहा- 'इसके भीतर दावाग्नि लगी होगी। वे ऊपर सर्प के नेत्रों के समान दोनों गुफाएँ लाल-लाल दीख रही हैं।' |
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