नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
'गगन में यह इतनी हलचल क्यों? देवता आतंक-ग्रस्त क्यों लगते हैं?' मैं बहुत देर तक देख ही नहीं सका कि नभ में सुरों के विमान भी आ गये हैं। श्रीकृष्णचन्द्र सम्मुख हों तो दृष्टि अन्यत्र कहाँ जाती हैं। ये कुञ्ज में तनिक गये, तब मुझे अपनी सुधि आयी। सुर दीखे और देवताओं की सशंक दृष्टि का लक्ष्य क्या है, यह मैंने देख लिया। अमृतपान करके भी अमर आशंकित रहते हैं अघासुर से। जिस पुण्य ने अमरावती पहुँचाया, पाप का यह अधिष्ठाता उसे पचा जा सकता है और तब पतन अनिवार्य हो जाएगा। अत: अमरों की आशंका उचित ही है। अघासुर इनके लिए अदम्य आतंक है। मेरी बात मेरे कृपामय ने- इन मेरे आराध्य पुरुषोत्तम ने ही पृथक रखी है। मैं तो इनका पदाश्रित हूँ। पाप-पुण्य के निर्णायक संयमिनी के स्वामी को कर्म स्पर्श नहीं किया करते। मेरे सामने तो इस अघासुर का इतिहास भी स्पष्ट है- शंखासुर का अत्यन्त सुन्दर पुत्र मलय-पर्वत पर पहुँचा और अपने अभाग्य के कारण अष्टावक्रजी का अनुकरण करने की सूझ गयी उसे। खर्वाकृति, काल कुरुप, कई स्थानों से वक्र-विकृत देह; किंतु अमित तेजस्वी महामुनि अष्टावक्र की गति- उनके चलने का ढंग शरीर के वक्र होने से अटपटा है। असुर कुमार उनको दिखाकर उनके समान ही मचकते हुए अटपटा टेढ़ा-मेढ़ा चलने और हँसने लगा। अष्टावक्रजी को रोष आ गया-'अरे दुर्बुद्धि! तू पापियों के समान काया को ही देखता है और सर्प के समान वक्र चलकर मेरा उपहास करता है, अत: अघ का अधिष्ठाता अजगर हो जा!' मदान्ध दुर्मति दुष्टों को दण्ड ही निर्दोष दृष्टि दे पाता है, यह मैं दण्डधर भली प्रकार जानता हूँ। महर्षि के शाप को सुनते ही असुर का अहंकार नष्ट हो गया। वह आर्त होकर उनके चरणों पर गिर पड़ा-'अघ के अधिष्ठाता का उद्धार कौन करेगा प्रभु?' |
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