नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. काकभुशुण्डि-क्रीड़ा
ये मेरे सर्वस्व- मेरे अन्तर के सर्वस्व! ये मुझे नहीं पहिचानेंगे, ऐसा सम्भव है? लेकिन ये हैं लीलामय। कभी मुझे देखते हैं तो मृगों, मार्जारों के मध्य बैठ जाते हैं। मुझे देख-देखकर किलकारी लेते हैं और तनिक-तनिक रोटी या नवनीत अपने मुख में डालते रहते हैं। कभी लगभग पूरी रोटी किञ्चित प्रसाद करके मेरी ओर बढ़ा देते हैं हाथ फैलाकर और मैं हाथ से लेकर उड़ता हूँ तो मुझे मुग्द नेत्रों से देखते रहते हैं। 'भाग्य जगे इसके! आज कन्हाई के करों की माखन-रोटी भर पेट खायेगा!' उस दिन मैं ऐसे ही रोटी लेकर उड़ा तो कोई महर्षि बोल उठे। उन्हें कहाँ पता होगा कि मैं युग-युग का इनका उच्छिष्ट भोगी हूँ। मुझे क्षुधा लगती है इनका प्रसाद पाने के लिए। इनके श्रीचरणों के समीप पहुँचता हूँ तो मेरी दृष्टि को सौन्दर्य-बोध, नासिका को सौरभ प्रेम, रसना को स्वाद-शक्ति, सब मिल जाती है। अन्यथा मैं तो काक हू़ँ और महर्षि के आशिर्वाद से क्षुधा-तृषादि मेरे समीप नहीं आती है। मैं गोकुल तभी आ गया जब ये श्रीनन्दनन्दन कक्ष से प्रांगण में आये। भगवान विश्वनाथ के साथ उनका शिष्य बनकर आया था। आशुतोष प्रभु तो मेरे गुरु महर्षि लोमश के गुरु हैं। मैं तो आया मानव-बालक बनकर; किंतु ये बृषभध्वज अपने ही वेश में आ गये। अवश्य वे पञ्चवक्र, चतुर्भुज या दशभुज रूप में नहीं थे। आये वे द्विभुज ही बनकर। गोकुल में नन्द-द्वार पर इतने देवता आते रहे हैं कि भगवान चन्द्रचूड़ के त्रिनयन, नीलकण्ठ वपु की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। मैं तो उनका अनुगामी अल्पवयस्क बालक शिष्य था। 'अलख!' व्रजराज की पौरि पर उन श्रीगंगाधर ने आवाज लगायी। सबसे पहिले भागे आये द्वार पर नन्दनन्दन के दिगम्बर अग्रज। हम दोनों की ओर वे भगवान संकर्षण साश्चर्य देखने लगे। वे भले यहाँ शिशु बने हों, उन अनन्त का अनन्त ऐश्वर्य तो आच्छादित नहीं रहा करता। उनके विशाल लोचनों में प्रश्न था- 'हम दोनों यहाँ ऐसे क्यों?' |
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