नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. काकभुशुण्डि-क्रीड़ा
व्रजेश्वरी नन्दरानी को सेविका ने दौड़कर समाचार दिया। वे श्रद्धामयी रत्नों से भरा स्वर्ण-पात्र लिए द्वार पर आ गयीं। उन्होंने भूमि पर मस्तक रख दिया। 'अम्ब! मैं वीतराग योगी हूँ। इन पत्थरों से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?' भगवान महेश्वर सहज भाव से बोले- 'बहुत दूर हिमालय से तेरे द्वार पर तेरे पुत्र के दर्शन की लालसा लेकर आया हूँ। मुझे अपने लाल के दर्शन की भिक्षा दे!' मैया तो चकित देखती रह गयी। चन्द्रोज्वल विभूति-भूषित सर्वांग और उसमें स्थान-स्थान पर रुद्राक्ष एवं सर्पों का आभूषण। हाथ में डमरू और त्रिशूल। पिंगल जटा भार में से झाँकती चन्द्रकला। 'बाबा! वह अभी बहुत अबोध शिशु है।' मैया हाथ जोड़कर काँपते स्वरों में बोली- 'आपके इस उग्र रूप को देखकर डर जायेगा।' 'मैया! ये अकल्पनीय प्रभाव रखने वाले महायोगिराज हैं!' मैंने तनिक आगे आकर कहा-'तेरे लाल को आशीर्वाद देने आये हैं। तू अपने अंक में लेकर लाल का दर्शन इन्हें करा दे।' मैं आठ-नौ वर्ष के बालक के वेश में था। मैया ने मेरी ओर वात्सल्य भरी दृष्टि से देखा और बोली-'अच्छा बाबा! यह भिक्षा ले लो। मैं उसे ले आती हूँ। आप भीतर कक्ष में पधारते तो .....।' 'मैं भवन में नहीं जाता माता!' पता नहीं क्या सोचकर भगवान ने कह दिया। भिक्षा के रत्न तो उन्होंने खप्पर में लेकर झोली में डाल दिये। मैया नन्हें घनश्याम को वस्त्रों में छिपाये द्वार पर आयी। भगवान अनन्त आ गये पुन∶ उसके साथ लगे। अब शंकरजी मैया के समीप हो गये और नन्दनन्दन के श्रीअंग अपने हाथों अनावरित कर दिये इन्होंने। अपनी पीली धूमिल जटाओं से जैसे झाड़ रहे हों- ऐसे जटाएँ फिराने लगे। 'यह डर जाएगा!' मैया ने झट पुन∶ वस्त्रों से ढका और भीतर लौटने लगी। इसे लगा होगा कि इस अतिशय सुकुमार लाल के अंग योगी की इन रूक्ष जटाओं का स्पर्श नहीं सह सकेंगे। मुझे बहुत व्यथा हुई- 'हाय! इतने समीप आकर मेरे स्वामी बिना एक झाँकी दिए चले जा रहे हैं?' ये लीलामय रुदन करने लगे। अभी भगवान नीलकण्ठ को देखकर मुस्कराये थे, किलकने लगे थे और हटाते ही इतने जोर से रुदन करने लगे कि मैया का हृदय घबड़ा गया। भगवान विश्वनाथ ने ही कहा-'अम्ब! डर मत, शिशु मेरे समीप नहीं रोयेगा। मैं सब ग्रह-बाधाओं से इसे सुरक्षित कर दूँगा।' |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज