नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
89. श्रीराधा
अब यह भी कोई मानने योग्य बात है कि जो मेरे जीवन-सर्वस्व हैं, प्राण हैं, प्रेम के अनन्त अपार पारावार हैं, वे मुझ अपनी पदाश्रिता का परित्याग करके पृथक हो सकते हैं? लेकिन वे अक्रूर आ गये थे उन्हें मथुरा ले जाने। क्या हुआ कि चार दिन को चले गये भी हों तो। वैसे सावधान रहकर सोचती हूँ तो यह भी सत्य नहीं लगता। वे एक दिन को भी तो मेरे समीप से कहीं गये नहीं। उन चतुर-चूड़ामणि ने किसी प्रकार कंस को मार दिया होगा। वन में नित्य ही तो गोचारण करने जाते हैं। किसी दिन चार पद और आगे मथुरा तक चले गये होंगे। अब इसको लेकर इतनी चर्चा, इतनी ऊहापोह लोगों में, मेरे मन में क्यों चला करती है? वे उद्धव आ गये थे। वनमाली सबको अपनाना ही तो जानते हैं। कभी उद्धव को भी सखा स्वीकार कर लिया होगा। सब अपने-अपने भाव के ही अनुसार तो उन्हें देखते हैं। यहीं वृन्दावन में गोपियाँ क्या-क्या कहती हैं उनके सम्बन्ध में। उद्धव भी अपने भाव के अनुसार उन्हें देखते हैं। मानते हैं और वैसी ही बातें कहते हैं। उन्हें लगता है कि मेरे मयूरमुकुटी उनके साथ सदा मथुरा ही रहते हैं। यहाँ भी तो उनके सब सखा यही कहते हैं- 'कन्हाई मेरे साथ ही रहता है। मेरे संग ही खेलता है।' ऐसा ही उद्धव को लगता है तो क्या आश्चर्य। मैं क्यों उद्धव की बातों को लेकर व्याकुल बनती हूँ? उनके अग्रज पधारे द्वारिका से। वे बड़े हैं, बड़े दायित्व हैं उनके। मैं दूर से उनके पदों के सम्मुख भूमि पर मस्तक ही तो रख सकती हूँ। वे तो वात्सल्य की मूर्ति हैं। सदा मुझे उनका आशीर्वाद मिला है। वे तो जब अवसर आया, यही पुछवाते हैं- 'लाली क्या चाहती है?' मुझे कष्ट हो, ऐसी कोई बात, कोई कार्य उनके द्वारा सम्भव नहीं। वे भी अपने अनुज से पृथक तो नहीं रह पाते; किंतु सम्भव है कि मुझ पर अतिशय स्नेह के कारण अनुज को यहाँ रखकर कुछ काल को मथुरा-द्वारिकावालों की देखभाल करने चले गये हों। अपने छोटे भाई को वे तनिक भी श्रम करते देखना नहीं चाहते। कोई भी कठिनाई की बात आ पड़े तो स्वयं आगे आ जाते हैं। अतः अवश्य कोई काम होगा यादवों का, उसके लिये कुछ काल को वे द्वारिका चले गये। बड़ों को बहुत व्यस्त रहना ही पड़ता है। हम बालिकायें उनकी समस्या कैसे समझ सकती हैं। क्या आवश्यकता है कि हम इसमें अपना सिर खपावें। इनके स्नेह-भरे कर की शीतल छाया शीश पर है, यह हमारा सौभाग्य। मुझसे कोई सखी नहीं कहती; किंतु सब परस्पर संकेत करती हैं, कानों में फुसफुसाती हैं, मैंने सुना है और इसमें इतना संकोच करने की बात भी क्या है। सत्य को सुनकर मैं रुष्ट क्यों होऊँगी? यह तो सत्य है कि मैं उन्माद-ग्रस्ता हूँ। यह कोई आज की बात तो नहीं है। प्रारम्भ से-शैशव से मैं कम ही सावधान रह पाती हूँ, यह मुझे पता है। लगता है कि मेरा यह उन्माद इन दिनों विशेष बढ़ गया है। |
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