नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. मंगला दासी-द्वितीय ग्रहण-यात्रा
'सब द्वारिका चली गयीं!' यह बात कीर्तिरानी के कण्ठ से निकलती क्यों है? मेरी लाली और उसकी सब सखियाँ कितनी संकोचशीला, लज्जावती, शीलमयी हैं। कृष्णचन्द्र सचमुच द्वारिका भी जा बसे होते तो क्या बाबा के विदा किये बिना मेरी राधा को बाहर ही बाहर साथ ले जाने में समर्थ हो सकते थे? वृषभानुजी और ये कीर्तिरानी मुझ वृद्धा से भी परिहास करते हैं। मैं क्या देखती नहीं हूँ कि इन लोगों ने कन्या का दहेज भेजने का कोई प्रबन्ध नहीं किया। इनकी प्राणाधिका पुत्री पति-गृह चली भी जाय तो क्या ये ऐसे बैठे रहेंगे? ये उसके लिये कुछ भेजेंगे नहीं? और सुबल-श्रीदाम क्या बहिन को सिद्धाश्रम से विदा करके स्वयं नन्दराय के साथ सीधे यहाँ चले आने वाले हैं? ये दोनों गये होते उसके साथ। द्वारिका तो क्या, संसार के छोर तक जाना होता तो भी साथ गये होते। बहिन को छोड़कर तो ये आने वाले नहीं थे। ये उसे विदा कराके, साथ लेकर आते। सबने मिलकर पता नहीं क्या सोचा है कि मुझे बैठक में जाने ही नहीं देते। मैं नित्य नन्दलाल की मुरली-ध्वनि सुनती हूँ। वह बैठक में रहते हैं, अतः वहाँ मेरे जाने से बालिकाओं को बहुत संकोच होगा। मैं बिना बुलाये वहाँ जा नहीं सकती। मुझसे ये गोप, गोपियाँ, सेविकायें और कीर्तिरानी भी परिहास करती हैं। मैं इसे भली प्रकार समझती हूँ। कालिन्दी-किनारे की बैठक दूर है। अब लाली ने उसे अपना अन्तःपुर बना लिया है। कदली कुञ्ज से घिरी वह बैठक है तो सुन्दर-सुरम्य स्थान। वनमाली भी उसी में बस गया है। मेरे राधा-गोविन्द कहीं गये नहीं हैं। वे व्रज में, वृन्दावन में, ही हैं। क्या हुआ कि इस बरसाने से कुछ दूर कदली कुञ्ज की बैठक में हैं। अभी कृष्णचन्द्र की वर्षगांठ आने वाली है। मेरी लाली की भी वर्षगांठ आवेगी। उन दिनों दोनों भवन में आवेंगे। यहाँ न भी आये उन दिनों तो मुझ वृद्धा को आशीर्वाद देने जाने से कोई तब कैसे रोकेगा? दोनों सुखी रहें! सानन्द रहें! सुप्रसन्न रहें। |
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