युयुत्सु का राजमहिलाओं के साथ हस्तिनापुर में जाना

महाभारत शल्य पर्व में ह्रदप्रवेश पर्व के अंतर्गत 29वें अध्याय में युयुत्सु का राजमहिलाओं के साथ हस्तिनापुर में जाने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

राजमहिलाओं का महान आर्तनाद

संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर स्त्रिोयों की रक्षा में नियुक्त हुए वृद्ध पुरुषों ने राजकुल की महिलाओं को साथ लेकर नगर की ओर प्रस्थान करने की तैयारी की। उस समय वहाँ अपने पतियों को पुकारती और रोती बिलखती हुई राजमहिलाओं का महान आर्तनाद सब ओर गूंज उठा। राजन! अपनी सेना और पतियों के संहार का समाचार सुन कर वे राजकुल की युवतियां अपने आर्तनाद से भूतल को प्रतिध्वनित करती हुई बारंबार कुररी की भाँति विलाप करने लगीं। वे जहाँ-तहाँ हाहाकार करती हुई अपने ऊपर नखों से आघात करने, हाथों से सिर और छाती पीटने तथा केश नोचने लगीं। प्रजानाथ! शोक में डूब कर पति को पुकारती हुई वे रानियां करुण स्वर से क्रन्दन करने लगीं। इससे दुर्योधन के मन्त्रियों का गला भर आया और वे अत्यन्त व्याकुल हो राजमहिलाओं को साथ ले नगर की ओर चल दिये।

प्रजानाथ! उनके साथ हाथों में बेंत की छड़ी लिये द्वारपाल भी चल रहे थे। रानियों की रक्षा में नियुक्त हुए सेवक शुभ्र एवं बहुमूल्य बिछौने लेकर शीघ्रतापूर्वक नगर की ओर चलने लगे। अन्य बहुत से राजकीय पुरुष खच्चरियों से जुते हुए रथों पर आरूढ़ हो अपनी-अपनी रक्षा में स्थित स्त्रियों को लेकर नगर की ओर यात्रा करने लगे। महाराज! जिन राजमहिलाओं को महलों में रहते समय पहले सूर्यदेव ने भी नहीं देखा होगा, उन्हें ही नगर की ओर जाते हुए साधारण लोग भी देख रहे थे। भरतश्रेष्ठ! जिनके स्वजन और बान्धव मारे गये थे, वे सुकुमारी स्त्रियां तीव्र गति से नगर की ओर जा रही थीं। उस समय भीमसेन के भय से पीड़ित हो सभी मनुष्य गायों और भेड़ों के चरवाहे तक घबरा कर नगर की ओर भाग रहे थे।[1]

युयुत्सु का राजमहिलाओं के साथ हस्तिनापुर में जाना

उन्हें कुन्ती के पुत्रों से दारुण एवं तीव्र भय प्राप्त हुआ था। वे एक दूसरे की ओर देखते हुए नगर की ओर भागने लगे। जब इस प्रकार अति भयंकर भगदड़ मची हुई थी, उस समय युयुत्सु शोक से मूर्च्छित हो मन-ही-मन समयोचित कर्तव्य का विचार करने लगा- ‘भयंकर पराक्रमी पाण्डवों ने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन को युद्ध में परास्त कर दिया और उसके भाईयों को भी मार डाला। ‘भीष्म और द्रोणाचार्य जिनके अगुआ थे, वे समस्त कौरव मारे गये। अकस्मात भाग्य-योग से अकेला मैं ही बच गया हूँ। ‘सारे शिबिर के लोग सब ओर भाग गये।[2]

स्वामी के मारे जाने से हतोत्साह होकर सभी सेवक इधर-उधर पलायन कर रहे हैं। ‘उन सबकी ऐसी अवस्था हो गयी है, जैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। सभी दुःख से आतुर हैं और सब के नेत्र भय से व्याकुल हो उठे हैं। सभी लोग भयभीत मृगों के समान दसों दिशाओं की ओर देख रहे हैं। दुर्योधन के मन्त्रियों में से जो कोई बच गये हैं, वे राजमहिलाओं को साथ लेकर नगर की ओर जा रहे हैं। ‘मैं राजा युधिष्ठिर और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर उन मन्त्रियों के साथ ही नगर में प्रवेश करूं, यही मुझे समयोचित कर्तव्य जान पड़ता है’। ऐसा सोच कर महाबाहु युयुत्सु ने उन दोनों के सामने अपना विचार प्रकट किया। उसकी बात सुनकर निरन्तर करुणा का अनुभव करने वाले महाबाहु राजा युधिष्ठिर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वैश्यकुमारी के पुत्र युयुत्सु को छाती से लगा कर विदा कर दिया। तत्पश्चात उसने रथ पर बैठा कर तुरंत ही अपने घोड़े बढ़ाये और राजकुल की स्त्रियों को राजधानी में पहुँचा दिया। सूर्य के अस्त होते-होते नेत्रों से आंसू बहाते हुए उसने उन सबके साथ हस्तिनापुर में प्रवेश किया। उस समय उसका गला भर आया था।

विदुर और युयुत्सु का संवाद

राजन! वहाँ उसने आपके पास से निकले हुए महाज्ञानी विदुर जी का दर्शन किया, जिनके नेत्रों में आंसू भरे हुए थे और मन शोक में डूबा हुआ था। सत्यपरायण विदुर ने प्रणाम करके सामने खड़े हुए युयुत्सु से कहा-‘बेटा! बड़े सौभाग्य की बात है कि कौरवों के इस विकट संहार में भी तुम जीवित बच गये हो; परंतु राजा युधिष्ठिर के हस्तिनापुर में प्रवेश करने से पहले ही तुम यहाँ कैसे चले आये? यह सारा कारण मुझे विस्तारपूर्वक बताओ’। युयुत्सु ने कहा-चाचा जी! जाति, भाई और पुत्र सहित शकुनि के मारे जाने पर जिसके शेष परिवार नष्ट हो गये थे, वह राजा दुर्योधन अपने घोड़े को युद्धभूमि में ही छोड़ कर भय के मारे पूर्व दिशा की ओर भाग गया। राजा के छावनी से दूर भाग जाने पर सब लोग भय से व्याकुल हो राजधानी की ओर भाग चले। तब राजा तथा उनके भाइयों की पत्नियों को सब ओर से सवारियों पर बिठा कर अन्तःपुर के अध्यक्ष भी भय के मारे भाग खड़े हुए। तदनन्तर मैं भगवान श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर की आज्ञा लेकर भागे हुए लोगो की रक्षा के लिये हस्तिनापुर में चला आया हूँ।[2]

विदुर द्वारा युयुत्सु की प्रशंसा करना

वेश्या पुत्र युयुत्सु की कहीं हुई यह बात सुन कर और इसे समयोचित जानकर सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता तथा अमेय आत्मबल से सम्पन्न विदुर जी ने युयुत्सु की भूरी-भूरी प्रशंसा की एवं इस प्रकार कहा-‘ भरतवंशियों के इस विनाश के समय जो यह समयोचित कर्तव्य प्राप्त था, वह सब बताकर अपनी दयालुता के कारण तुमने कुल-धर्म की रक्षा की है। ‘वीरों का विनाश करने वाले इस संग्राम से बच कर तुम कुशलपूर्वक नगर में लौट आये- इस अवस्थाओं में हमने तुम्हें उसी प्रकार देखा है, जैसे रात्रि के अन्त में प्रजा भगवान भास्कर का दर्शन करती है। ‘लोभी, अदूरदर्शी और अन्धे राजा के लिये तुम लाठी के सहारे हो। मैंने उनसे युद्ध रोकने के लिये बारंबार याचना की थी, परंतु दैव से उनकी बुद्धि मारी गयी थी; इसलिये उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी। आज वे संकट से पीड़ित हैं, बेटा! इस अवस्था में एकमात्र तुम्हीं उन्हें सहारा देने के लिये जीवित हो। ‘आज यहीं विश्राम करो। कल सबेरे युधिष्ठिर के पास चले जाना’ ऐसा कहकर नेत्रों में आंसू भरे विदुर जी ने युयुत्सु को साथ लेकर राजमहल में प्रवेश किया।[3]

वह भवन नगर और जनपद के लोगों द्वारा दुःख पूर्वक किये जाने वाले हाहाकार एवं भयंकर आर्तनाद से गूंज उठा था। वहाँ न तो आनन्द था और न वैभवजनित शोभा ही दृष्टिगोचर होती थी। वह राजभवन उस जलाशय के समान जनशून्य और विध्वस्त सा जान पड़ता था, जिसके तट का उद्यान नष्ट हो गया हो। वहाँ पहुँच कर विदुर जी दुःख से अत्यन्त खिन्न हो गये। राजन! सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता विदुर जी ने व्याकुल अन्तः- करण से नगर में प्रवेश किया और धीरे-धीरे वे लंबी सांस खींचने लगे। युयुत्सु भी उस रात में अपने घर पर ही रहे। उनके मन में अत्यन्न दुःख था, इसलिये वे स्वजनों द्वारा वन्दित होने पर भी प्रसन्न नहीं हुए। इस पारस्परिक युद्ध से भरतवंशियों का जो घोर संहार हुआ था, उसी की चिन्ता में वे निमग्न हो गये थे।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 29 श्लोक 20-42
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 29 श्लोक 77-95
  3. 3.0 3.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 29 श्लोक 96-105

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