श्रुतावती और अरुन्धती के तप की कथा

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 48वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने बदरपाचन तीर्थ की महिमा के प्रसंग में श्रुतावती और अरुन्धती के तप की कथा का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

बदरपाचन तीर्थ की महिमा तथा श्रुतावती और अरुन्धती के तप की कथा

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! पहले कहा गया है कि वहाँ से बलराम जी बदरपाचन नामक श्रेष्ठ तीर्थ में गये, जहाँ तपस्वी और सिद्ध पुरुष विचरण करते हैं तथा जहाँ पूर्वकाल में उत्तम व्रत धारण करने वाली भरद्वाज की ब्रह्मचारिणी पुत्री कुमारी कन्या श्रुतावती, जिसके रूप और सौन्दर्य की भूमण्डल में कहीं तुलना नहीं थी, निवास करती थी। वह भामिनी बहुत से नियमों को धारण करके वहाँ अत्यन्त उग्र तपस्या कर रही थी। उसने अपनी तपस्या का यही उद्देश्य निश्चित कर लिया था कि देवराज इन्द्र मेरे पति हों। कुरुकुलभूषण! स्त्रियों के लिये जिनका पालन अत्यन्त दुष्कर और दुःसह है, उन-उन कठोर नियमों का पालन करती हुई श्रुतावती के वहाँ अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। प्रजानाथ! उसके उस आचरण, तपस्या तथा पराभक्ति से भगवान पाकशासन (इन्द्र) बड़े प्रसन्न हुए। वे शक्तिशाली देवराज ब्रह्मर्षि महात्मा वसिष्ठ का रूप धारण करके उसके आश्रम पर आये। भरतनन्दन! उसने तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ और उग्र तपस्या परायण वसिष्ठ को देखकर मुनिजनोचित आचारों द्वारा उनका पूजन किया। फिर नियमों का ज्ञान रखने वाली और मधुर एवं प्रिय वचन बोलने वाली कल्याणमयी श्रुतावती ने इस प्रकार कहा- ‘भगवन! मुनिश्रेष्ठ! प्रभो! मेरे लिये क्या आज्ञा है? सुव्रत! आज मैं यथा शक्ति आपको सब कुछ दूंगी; परंतु इन्द्र के प्रति अनुराग रखने के कारण अपना हाथ आपको किसी प्रकार नहीं दे सकूंगी। तपोधन! मुझे अपने व्रतों, नियमों तथा तपस्या द्वारा त्रिभुवन सम्राट भगवान इन्द्र को ही संतुष्ट करना है’।

भारत! श्रुतावती के ऐसा कहने पर भगवान इन्द्र ने मुस्कराते हुए से उसकी ओर देखा और उसके नियम को जानकर उसे सान्त्वना देते हुए से कहा- ‘सुव्रते! मैं जानता हूँ तुम बड़ी उग्र तपस्या कर रही हो। कल्याणि! सुमुखि! जिस उद्देश्य से तुमने यह अनुष्ठान आरम्भ किया है और तुम्हारे हृदय में जो सकल्प है, वह सब यथार्थ रूप से सफल होगा। शुभानने! तपस्या से सब कुछ प्राप्त होता है। तुम्हारा मनोरथ भी यथावत रूप से सिद्ध होगा। देवताओं के जो दिव्य स्थान हैं, वे तपस्या से प्राप्त होने वाले हैं। महान सुख का मूल कारण तपस्या ही है। कल्याणि! इस उद्देश्य से मनुष्य घोर तपस्या करके अपने शरीर को त्याग कर देवत्व प्राप्त कर लेते हैं। अच्छा, अब तुम मेरी एक बात सुनो। सुभगे! शुभव्रते! ये पांच बेर के फल हैं। तुम इन्हें पका दो।’ ऐसा कहकर भगवान इन्द्र कल्याणी श्रुतावती से पूछकर उस आश्रम से थोड़ी ही दूर पर स्थित उत्तम तीर्थ में गये और वहाँ स्नान करके जप करने लगे। मानद! वह तीर्थ तीनों लोकों में इन्द्र-तीर्थ के नाम से विख्यात है। देवराज भगवान पाकशासन ने उस कन्या के मनोभाव की परीक्षा लेने के लिये उन बेर के फलों को पकने नहीं दिया। राजन! तदनन्तर शौचाचार से सम्पन्न उस तपस्विनी ने थकावट से रहित हो मौन भाव से उन फलों को आग पर चढ़ा दिया। नृपश्रेष्ठ! फिर वह महाव्रता कुमारी बड़ी तत्परता के साथ उन बेर के फलों को पकाने लगी।[1]

पुरुषप्रवर! उन फलों को पकाते हुए उसका बहुत समय व्यतीत हो गया, परंतु वे फल पक न सके। इतने में ही दिन समाप्त हो गया। उसने जो ईधन जमा कर रखे थे, वे सब आग में जल गये। तब अग्नि को ईधन रहित देख उसने अपने शरीर को जलाना आरम्भ किया। निष्पाप नरेश! मनोहर दिखायी देने वाली उस कन्या ने पहले अपने दोनों पैर आग में डाल दिये। वे ज्यों-ज्यों जलने लगे, त्यों-ही-त्यों वह उन्हें आग के भीतर बढ़ाती गयी। उस साध्वी ने अपने जलते हुए चरणों की कुछ भी परवा नहीं की। वह महर्षि का प्रिय करने की इच्छा से दुष्कर कार्य कर रही थी। उसके मन में तनिक भी उदासी नहीं आयी। मुख की कान्ति में भी कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह अपने शरीर को आग में जलाकर भी ऐसी प्रसन्न थी, मानो जल के भीतर खड़ी हो। भारत! उसके मन में निरन्तर इसी बात का चिन्तन होता रहता था कि ‘इन बेर के फलों को हर तरह से पकाना है’। भरतनन्दन! महर्षि के वचन को मन में रख कर वह शुभ लक्षणा कन्या उन बेरों को पकाती ही रही, परंतु वे पक न सके। भगवान अग्नि ने स्वयं ही उसके दोनों पैरों को जला दिया, तथापि उस समय उसके मन में थोड़ा सा भी दुःख नहीं हुआ। उसका यह कर्म देख कर त्रिभुवन के स्वामी इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने उस कन्या को अपना यथार्थ रूप दिखाया। इसके बाद सुरश्रेष्ठ इन्द्र ने दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली उस कन्या से इस प्रकार कहा- ‘शुभे! मैं तुम्हारी तपस्या, नियम पालन और भक्ति से बहुत संतुष्ट हूँ। अतः कल्याणि! तुम्हारे मन में जो अभीष्ट मनोरथ है, वह पूर्ण होगा। महाभागे! तुम इस शरीर का परित्याग करके स्वर्ग लोक में मेरे पास रहोगी। सुभ्रु! तुम्हारा यह श्रेष्ठ तीर्थ इस जगत में सुस्थिर होगा, बदरपाचन नाम से प्रसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला होगा।

यह तीनों लोकों में विख्यात है। बहुत से ब्रह्मर्षियों ने इस में स्नान किया है। पाप रहित महाभागे! एक समय सप्तर्षिगण इस मंगलमय श्रेष्ठ तीर्थ में अरुन्धती को छोड़ कर हिमालय पर्वत पर गये थे। वहाँ पहुँच कर कठोर व्रत का पालन करने वाले वे महाभाग महर्षि जीवन-निर्वाह के निमित्त फल-मूल लाने के लिये वन में गये। जीविका की इच्छा से जब वे हिमालय के वन में निवास करते थे, उन्हीं दिनों बारह वर्षों तक इस देश में वर्षा ही नहीं हुई। वे तपस्वी मुनि वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय कल्याणी अरुन्धती भी प्रतिदिन तपस्या में ही लगी रही। अरुन्धती को कठोर नियम का आश्रय लेकर तपस्या करती देख त्रिनेत्रधारी वरदायक भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे महायशस्वी महादेव जी ब्राह्मण का रूप धारण करके उनके पास गये और बोले- ‘शुभे! मैं भिक्षा चाहता हूं’। तब परम सुन्दरी अरुन्धती ने उन ब्राह्मण देवता से कहा- ‘विप्रवर! अन्न का संग्रह तो समाप्त हो गया। अब यहाँ ये बेर हैं, इन्हीं को खाइये’। तब महादेव जी ने कहा- ‘सुव्रते! इन बेरों को पका दो।’ उनके इस प्रकार आदेश देने पर यशस्विनी अरुन्धती ने ब्राह्मण का प्रिय करने की इच्छा से उन बेरों को प्रज्वलित अग्नि पर रखकर पकाना आरम्भ किया।[2]

उस समय उसे परम पवित्र मनोहर एवं दिव्य कथाएं सुनायी देने लगीं। वह बिना खाये ही बेर पकाती और मंगलमयी कथाएं सुनती रही। इतने में ही बारह वर्षों की वह भयंकर अनावृष्टि समाप्त हो गयी। वह अत्यन्त दारुण समय उसके लिये एक दिन के समान व्यतीत हो गया। तदनन्तर सप्तर्षिगण हिमालय पर्वत से फल लेकर वहाँ आये। उस समय भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर अरुन्धती से कहा- ‘धर्मज्ञे! अब तुम पहले के समान इन ऋषियों के पास जाओ! धर्म को जानने वाली देवि! मैं तुम्हारी तपस्या और नियम से बहुत प्रसन्न हूं’। ऐसा कहकर भगवान शंकर ने अपने स्वरूप का दर्शन कराया और उन सप्तर्षियों से अरुन्धती के महान चरित्र का वर्णन किया। वे बोले- विप्रवरों! आप लोगों ने हिमालय के शिखर पर रहकर जो तपस्या की है और अरुन्धती ने यहीं रहकर जो तप किया है, इन दोनों में कोई समानता नहीं है (अरुन्धती का ही तप श्रेष्ठ है)। इस तपस्विनी ने बिना कुछ खाये-पीये बेर पकाते हुए बारह वर्ष बिता दिये हैं। इस प्रकार इसने दुष्कर तप का उपार्जन कर लिया है। इसके बाद भगवान शंकर ने पुनः अरुन्धती से कहा- 'कल्याणि! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, उसके अनुसार कोई वर मांग लो’। तब विशाल एवं अरुण नेत्रों वाली अरुन्धती ने सप्तर्षियों की सभा में महादेव जी से कहा- ‘भगवान यदि मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह स्थान बदरपाचन नाम से प्रसिद्ध होकर सिद्धों और देवर्षियों का प्रिय एवं अदभुत तीर्थ हो जाय। देवदेवेश्वर! इस तीर्थ में तीन रात तक पवित्र भाव से रहकर वास करने से मनुष्य को बारह वर्षों के उपवास का फल प्राप्त हो। तब महादेव जी ने उस तपस्विनी से कहा- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। फिर सप्तर्षियों ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात महादेव जी अपने लोक में चले गये। अरुन्धती भूख-प्यास से युक्त होने पर भी न तो थकी थी और न उसकी अंगकान्ति ही फीकी पड़ी थी। उसे देखकर ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कठोर व्रत का पालन करने वाली महाभागे! इस प्रकार विशुद्ध हृदया अरुन्धती देवी ने यहाँ परम सिद्धि प्राप्त की थी, जैसी कि तुमने मेरे लिये तप करके सिद्धि पायी है। भद्रे! तुमने इस व्रत में विशेष आत्मसमर्पण किया है।

सती कल्याणि! मैं तुम्हारे नियम से संतुष्ट होकर यह विशेष वर प्रदान करता हूँ। ‘कल्याणि! महात्मा भगवान शंकर ने अरुन्धती देवी को जो वर दिया था, तुम्हारे तेज और प्रभाव से मैं उससे भी बढ़कर उत्तम वर देता हूँ। जो इस तीर्थ में एकाग्रचित्त होकर एक रात निवास करेगा, वह यहाँ स्नान करके देह-त्याग के पश्चात उन पुण्य लोकों में जायगा, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं’। पुण्यमयी श्रुतावती से ऐसा कहकर सहस्र नेत्रधारी प्रतापी भगवान इन्द्रदेव पुनः स्वर्गलोक में चले गये। राजन! भरतश्रेष्ठ! वज्रधारी इन्द्र के चले जाने पर वहाँ पवित्र सुगन्ध वाले दिव्य पुष्पों की वर्षा होनी लगी और महान शब्द करने वाली देवदुन्दुभियां बज उठीं।[3] प्रजानाथ! पावन सुगंध से युक्त पवित्र वायु चलने लगी। शुभलक्षणा श्रुतावती अपने शरीर को त्याग कर इन्द्र की भार्या हो गयी। अच्युत! वह अपनी उग्र तपस्या से इन्द्र को पाकर उनके साथ रमण करने लगी। जनमेजय ने पूछा- भगवन! शोभामयी श्रुतावती की माता कौन थी और वह कहाँ पली थी? यह मैं सुनना चाहता हूँ। विप्रवर! इसके लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा हो रही है। वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! एक दिन विशाल नेत्रों वाली घृताची अप्सरा कहीं से आ रही थी। उसे देखकर महात्मा महर्षि भरद्वाज का वीर्य स्खलित हो गया। जप करने वालों में श्रेष्ठ ऋषि ने उस वीर्य को अपने हाथ में ले लिया, परंतु वह तत्काल ही एक पत्ते के दोने में गिर पड़ा? वहीं वह कन्या प्रकट हो गयी। तपस्या के धनी धर्मात्मा महामुनि भरद्वाज ने उसके जात कर्म आदि सब संस्कार करके देवर्षियों की सभा में उसका नाम श्रुतावती रख दिया। फिर वे उस कन्या को अपने आश्रम में रखकर हिमालय के जंगल में चले गये थे। वृष्णिवंशावतंस महानुभाव बलराम जी उस तीर्थ में भी स्नान और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को धन का दान करके उस समय एकाग्रचित्त हो वहाँ से इन्द्र-तीर्थ में चले गये।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-20
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 21-41
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 42-61
  4. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 48 श्लोक 62-68

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