युधिष्ठिर के कहने से दुर्योधन का सरोवर से बाहर आना

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 32वें अध्याय में युधिष्ठिर के कहने से दुर्योधन का सरोवर से बाहर आने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

धृतराष्ट्र का संजय से प्रश्न पूछना

धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! शत्रुओं को संताप देने वाला मेरा वीर पुत्र राजा दुर्योधन स्वभाव से ही क्रोधी था। जब युधिष्ठिर ने उसे इस प्रकार फटकारा, तब उसकी कैसी दशा हुई? उसने पहले कभी किसी तरह ऐसी फटकार नहीं सुनी थी; क्योंकि राजा होने के कारण वह सब लोगों के सम्मान का पात्र था। अभिमानी होने के कारण जिसके मन में अपने छत्र की छाया और सूर्य की प्रभा भी खेद ही उत्पन्न करती थी, वह ऐसी कठोर बातें कैसे सह सकता था? संजय! तुमने तो प्रत्यक्ष ही देखा था कि म्लेच्छों तथा जंगली जातियों सहित यह सारी पृथ्वी दुर्योधन की कृपा से ही जीवन धारण करती थी। इस समय वह अपने सेवकों से हीन हो चुका था और एकान्त स्थान में घिर गया था। उस दशा में विशेषतः पाण्डवों ने जब उसे वैसी कड़ी फटकार सुनायी, तब शत्रुओं के विजय से युक्त उन कटुवचनों को बारंबार सुनकर दुर्योधन ने पाण्डवों से क्या कहा? यह मुझे बताओ।

संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर देना

संजय ने कहा- राजाधिराज! राजन! उस समय भाइयों सहित युधिष्ठिर ने जब इस प्रकार फटकारा, तब जल में खड़े हुए आपके पुत्र ने उन कठोर वचनों को सुनकर गरम-गरम लंबी सांस छोड़ी। राजा दुर्योधन विषम परिस्थिति में पड़ गया था और पानी में स्थित था; इसलिये बारंबार उच्छ्वास लेता रहा।

दुर्योधन और युधिष्ठिर की बातचीत

उसने जल के भीतर ही अनेक बार दोनों हाथ हिलाकर मन ही मन युद्ध का निश्चय किया और राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ‘तुम सभी पाण्डव अपने हितैषी मित्रों को साथ लेकर आये हो। तुम्हारे रथ और वाहन भी मौजूद हैं। मैं अकेला थका-मादा, रथहीन और वाहनशून्य हूँ। ‘तुम्हारी संख्या अधिक है। तुमने रथ पर बैठकर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे घेर रखा है। फिर तुम्हारे साथ मैं अकेला पैदल और अस्त्र-शस्त्रों से रहित होकर कैसे युद्ध कर सकता हूँ? ‘युधिष्ठिर! तुम लोग एक-एक करके मुझसे युद्ध करो। युद्ध में बहुत से वीरों के साथ किसी एक को लड़ने के लिये विवश करना न्यायोचित नहीं है। ‘विशेषतः उस दशा में जिसके शरीर पर कवच नहीं हो, जो थका मांदा, आपत्ति में पड़ा और अत्यन्त घायल हो तथा जिसके वाहन और सैनिक भी थक गये हों, उसे युद्ध के लिये विवश करना न्याय संगत नहीं है। ‘राजन! मुझे न तो तुमसे, ना कुन्ती के बेटे भीमसेन से, न अर्जुन से, न श्रीकृष्ण से अथवा पाञ्चालों से ही कोई भय है। नकुल-सहदेव, सात्यकि तथा अन्य जो-जो तुम्हारे सैनिक हैं, उनसे भी मैं नहीं डरता। युद्ध में क्रोधपूर्वक स्थित होने पर मैं अकेला ही तुम सब लोगों को आगे बढ़ने से रोक दूंगा। ‘नरेश्वर! साधु पुरुषों की कीर्ति का मूल कारण धर्म ही है। मैं यहाँ उस धर्म और कीर्ति का पालन करता हुआ ही यह बात कह रहा हूँ। ‘मैं उठ कर रणभूमि में एक एक करके आये हुए तुम सब लोगों के साथ युद्ध करूंगा, ठीक उसी तरह, जैसे संवत्सर बारी-बारी से आये हुए सम्पूर्ण ऋतुओं को ग्रहण करता है।[1] ‘पाण्डवो! स्थिर होकर खड़े रहो। आज मैं अस्त्र-शस्त्र एवं रथ से हीन होकर भी घोड़ों और रथों पर चढ़ कर आये हुए तुम सब लोगों को उसी तरह अपने तेज से नष्ट कर दूंगा, जैसे रात्रि के अन्त में सूर्यदेव सम्पूर्ण नक्षत्रों को अपने तेज से अदृश्य कर देते हैं। ‘भरतश्रेष्ठ! आज मैं भाइयों सहित तुम्हारा वध करके उन यशस्वी क्षत्रियों के ऋण से उऋण हो जाऊंगा। बाह्लीक, द्रोण, भीष्म, महामना कर्ण, शूरवीर जयद्रथ, भगदत्त, मद्रराज शल्य, भूरिश्रवा, सुबलकुमार शकुनि तथा पुत्रों, मित्रों, सुहृदों एवं बन्धु बान्धवों के ऋण से भी उऋण हो जाऊंगा।’ राजा दुर्योधन इतना कहकर चुप हो गया।[2]

युधिष्ठिर बोले- सुयोधन! सौभाग्य की बात है कि तुम भी क्षत्रिय धर्म को जानते हो। महाबाहो! यह जानकर प्रसन्नता हुई कि अभी तुम्हारा विचार युद्ध करने का ही है। कुरुनन्दन! तुम शूरवीर हो और युद्ध करना जानते हो- यह हर्ष और सौभाग्य की बात है। तुम रणभूमि में अकेले ही एक-एक के साथ भिड़ कर हम सब लोगों से युद्ध करना चाहते हो तो ऐसा ही सही। जो हथियार तुम्हें पसंद हो, उसी को लेकर हम लोगों में से एक-एक के साथ युद्ध करो। हम सब लोग दर्शक बनकर खड़े रहेंगे। वीर! मैं स्वयं ही पुनः तुम्हें यह अभीष्ट वर देता हूँ कि ‘हम में से एक का भी वध कर देने पर सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा अथवा यदि तुम्हीं मारे गये तो स्वर्गलोक प्राप्त करोगे।’

दुर्योधन बोला- राजन! यदि ऐसी बात है तो इस महासमर में मेरे साथ लड़ने के लिये आज किसी भी एक शूरवीर को दे दो और तुम्हारी सम्मति के अनुसार हथियारों में मैंने एक मात्र इस गदा का ही वरण किया है। मैं हर्ष के साथ कह रहा हूँ कि ‘तुम में से कोई भी एक वीर जो मुझ अकेले को जीत सकने का अभिमान रखता हो, वह रणभूमि में पैदल ही गदा द्वारा मेरे साथ युद्ध करे’। रथ के विचित्र युद्ध तो पग-पग पर हुए हैं। आज यह एक अत्यन्त अद्‌भुत गदा युद्ध भी हो जाय। मनुष्य बारी-बारी से एक-एक अस्त्र का प्रयोग करना चाहते हैं; परंतु आज तुम्हारी अनुमति से युद्ध भी क्रमशः एक-एक योद्धा के साथ ही हो। महाबाहो! मैं गदा के द्वारा भाइयों सहित तुम को, पाञ्चालों और सृंजयों को तथा जो तुम्हारे दूसरे सैनिक हैं, उनको भी जीत लूंगा। युधिष्ठिर! मुझे इन्द्र से भी कभी घबराहट नहीं होती। युधिष्ठिर बोले- गान्धारीनन्दन! सुयोधन! उठो-उठो और मेरे साथ युद्ध करो। बलवान तो तुम हो ही। युद्ध में गदा के द्वारा अकेले किसी एक वीर के साथ ही भिड़ कर अपने पुरुषत्व का परिचय दो। एकाग्रचित्त होकर युद्ध करो। यदि इन्द्र भी तुम्हारे आश्रयदाता हो जायं तो भी आज तुम्हारे प्राण नहीं बच सकते।

दुर्योधन का सरोवर से बाहर आना

संजय कहते हैं- राजन! युधिष्ठिर के इस कथन को जल में स्थित हुआ आपका पुत्र पुरुष सिंह दुर्योधन नहीं सह सका। वह बिल में बैठे हुए विशाल सर्प के समान लंबी सांस खींचने लगा। राजन! जैसे अच्छा घोड़ा कोड़े की मार नहीं सह सकता है, उसी प्रकार वचन रूपी चाबुक से बार-बार पीड़ित किया जाता हुआ दुर्योधन युधिष्ठिर की उस बात को सहन न कर सका।[2] वह पराक्रमी वीर बड़े वेग से सोने के अंगद से विभूषित एवं लोहे की बनी हुई भारी गदा हाथ में लेकर पानी को चीरता हुआ उसके भीतर से उठ खड़ा हुआ और सर्पराज के समान लंबी सांस खींचने लगा। कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल का भेदन करके आपका वह पुत्र प्रतापी सूर्य के समान ऊपर उठा। इसके बाद महाबली बुद्धिमान दुर्योधन ने लोहे की बनी हुई वह सुवर्णभूषित भारी गदा हाथ में ली। हाथ में गदा लिये हुए दुर्योधन को पाण्डवों ने इस प्रकार देखा, मानो कोई श्रृंग युक्त पर्वत हो अथवा प्रजा पर कुपित होकर हाथ में त्रिशूल लिये हुए रुद्रदेव खड़े हों। वह गदाधारी भरतवंशी वीर तपते हुए सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। शत्रुओं का दमन करने वाले महाबाहु दुर्योधन को हाथ मे गदा लिये जल से निकला हुआ देख समस्त प्राणी ऐसा मानने लगे, मानो दण्डधारी यमराज प्रकट हो गये हों।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 18-36
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 32 श्लोक 37-55

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