दधीच ऋषि तथा सारस्वत मुनि के चरित्र का वर्णन

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 51वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने सारस्वत तीर्थ की महिमा के प्रसंग में दधीच ऋषि और सारस्वत मुनि के चरित्र का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

कुमार कार्तिकेय के अभिषेक की तैयारियाँ

वैशम्पायन जी कहते हैं- भरतनन्दन! वही सोम तीर्थ है, जहाँ नक्षत्रों के स्वामी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया था। उसी तीर्थ में महान तारकामय संग्राम हुआ था। धर्मात्मा एवं मनस्वी बलराम जी उस तीर्थ में भी स्नान एवं दान करके सारस्वत मुनि के तीर्थ में गये। प्राचीन काल में जब बारह वर्षों की अनावृष्टि हो गयी थी, सारस्वत मुनि ने वहीं उत्तम ब्राह्मणों को वेदाध्ययन कराया था। जनमेजय ने पूछा- मुने! प्राचीन काल में सारस्वत मुनि ने बारह वर्षों की अनावृष्टि के समय उत्तम ब्राह्मणों को किस प्रकार वेदों का अध्ययन कराया था? वैशम्पायन जी ने कहा- महाराज! पूर्वकाल में एक बुद्धिमान महातपस्वी मुनि रहते थे, जो ब्रह्मचारी और जितेन्द्रिय थे। उनका नाम था दधीच। प्रभो! उनकी भारी तपस्या से इन्द्र सदा डरते रहते थे। नाना प्रकार के फलों का प्रलोभन देने पर भी उन्हें लुभाया नहीं जा सकता था। तब इन्द्र ने मुनि को लुभाने के लिये एक पवित्र दर्शनीय एवं दिव्य अप्सरा भेजी, जिसका नाम था अलम्बुषा

महाराज! एक दिन, जब महात्मा दधीच सरस्वती नदी में देवताओं का तर्पण कर रहे थे, वह माननीय अप्सरा उनके पास जाकर खड़ी हो गयी। उस दिव्य रूप धारिणी अप्सरा को देखकर उन विशुद्ध अन्तः करण वाले महर्षि का वीर्य सरस्वती के जल में गिर पड़ा। उस वीर्य को सरस्वती नदी ने स्वयं ग्रहण कर लिया। पुरुषप्रवर! उस महान नदी ने हर्ष में भरकर पुत्र के लिये उस वीर्य को अपनी कुक्षि में रख लिया और इस प्रकार वह गर्भवती हो गयी। प्रभो! समय आने पर सरिताओं में श्रेष्ट सरस्वती ने एक पुत्र को जन्म दिया और उसे लेकर वह ऋषि के पास गयी। राजेन्द्र! ऋषियों की सभा में बैठे हुए मुनि श्रेष्ठ दधीच को देखकर उन्हें उनका वह पुत्र सौंपती हुई सरस्वती नदी इस प्रकार बोली- ‘ब्रह्मर्षे! यह आपका पुत्र है। इसे आपके प्रति भक्ति होने के कारण मैंने अपने गर्भ में धारण किया था। ब्रह्मर्षे! पहले अलम्बुषा नामक अप्सरा को देखकर जो आपका वीर्य स्खलित हुआ था, उसे आपके प्रति भक्ति होने के कारण मैंने अपने गर्भ में धारण कर लिया था; क्योंकि मेरे मन में यह विचार हुआ था कि आपका यह तेज नष्ट न होने पावे। अतः आप मेरे दिये हुए अपने इस अनिन्दनीय पुत्र को ग्रहण कीजिये’। उसके ऐसा कहने पर मुनि ने उस पुत्र को ग्रहण कर लिया और वे बड़े प्रसन्न हुए। भरतभूषण! उन द्विज श्रेष्ठ ने बड़े प्रेम से अपने उस पुत्र का मस्तक सूंघा और दीर्घ काल तक छाती से लगाकर अत्यन्त प्रसन्न हुए महामुनि ने सरस्वती को वर दिया- ‘सुभगे! तुम्हारे जल से तर्पण करने पर विश्वेदेव, पितृगण तथा गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदाय सभी तृप्ति लाभ करेंगे’।[1]

‘महाभागे! तुम पूर्वकाल में ब्रह्मा जी के सरोवर से प्रकट हुई हो। सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती! कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि तुम्हारी महिमा को जानते हैं। प्रियदर्शने! तुम सदा मेरा भी प्रिय करती रही हो; अतः वरवर्णिनि! तुम्हारा यह लोकभावन महान पुत्र तुम्हारे ही नाम पर ‘सारस्वत’ कहलायेगा। यह सारस्वत नाम से विख्यात महातपस्वी होगा। महाभागे! इस संसार में बारह वर्षों तक जब वर्षा बंद हो जायगी, उस समय यह सारस्वत ही श्रेष्ठ ब्राह्मणों को वेद पढ़ायेगा। शुभे! महासौभाग्यशालिनी सरस्वति! तुम मेरे प्रसाद से अन्य पवित्र सरिताओं की अपेक्षा सदा ही अधिक पवित्र बनी रहोगी’। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उनके द्वारा प्रशंसित हो वर पाकर वह महानदी पुत्र को लेकर प्रसन्नतापूर्वक चली गयी। इसी समय देवताओं और दानवों में विरोध होने पर इन्द्र अस्त्र-शस्त्रों की खोज के लिये तीनों लोकों में विचरण करने लगे। परंतु भगवान शक्र उस समय ऐसा कोई हथियार न पा सके, जो उन देवद्रोहियों के वध के लिये उपयोगी हो सके। तदनन्तर इन्द्र ने देवताओं से कहा- ‘दधीच मुनि की अस्थियों के सिवा और किसी अस्त्र-शस्त्र से मेरे द्वारा देवद्रोही महान असुर नहीं मारे जा सकते। अतः सुरश्रेष्ठगण! तुम लोग जाकर मुनिवर दधीच से याचना करो कि आप अपनी हड्डियां हमें दे दें। हम उन्हीं के द्वारा अपने शत्रुओं का वध करेंगे’।

कुरुश्रेष्ठ! देवताओं के द्वारा प्रयत्नपूर्वक अस्थियों के लिये याचना की जाने पर मुनिवर दधीच ने बिना कोई विचार किये अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। उस समय देवताओं का प्रिय करने के कारण वे अक्षय लोकों में चले गये। तब इन्द्र ने प्रसन्नचित्त होकर दधीच की हड्डियों से गदा, वज्र, चक्र और बहुसंख्यक भारी दण्ड आदि नाना प्रकार के दिव्य आयुध तैयार कराये। ब्रह्मा जी के पुत्र महर्षि भृगु ने तीव्र तपस्या से भरे हुए लोक मंगलकारी विशालकाय एवं तेजस्वी दधीच को उत्पन्न किया था। ऐसा जान पड़ता था, मानो सम्पूर्ण जगत के सारतत्त्व से उनका निर्माण किया गया हो। वे पर्वत के समान भारी और ऊंचे थे। अपनी महत्ता के लिये वे सामर्थ्यशाली मुनि सर्वत्र विख्यात थे। पाकशासन इन्द्र उनके तेज से सदा उद्विग्न रहते थे। भरतनन्दन! ब्रह्म तेज से प्रकट हुए उस वज्र को मन्त्रोच्चारण के साथ अत्यन्त क्रोधपूर्वक छोड़कर भगवान इन्द्र ने आठ सौ दस दैत्य-दानव वीरों का वध कर डाला। राजन! तदनन्तर सुदीर्घ काल व्यतीत होने पर जगत में बारह वर्षों तक स्थिर रहने वाली अत्यन्त भयंकर अनावृष्टि प्राप्त हुई। नरेश्वर! बारह वर्षों की उस अनावृष्टि में सब महर्षि भूख से पीड़ित हो जीविका के लिये सम्पूर्ण दिशाओं में दौड़ने लगे। सम्पूर्ण दिशाओं से भागकर इधर-उधर जाते हुए उन महर्षियों को देखकर सारस्वत मुनि ने भी वहाँ से अन्यत्र जाने का विचार किया। तब सरस्वती देवी ने उनसे कहा। भरतनन्दन! सरस्वती इस प्रकार बोली- ‘बेटा! तुम्हें यहाँ से कहीं नहीं जाना चाहिये। मैं सदा तुम्हें भोजन के लिये उत्तमोत्तम मछलियां दूगी; अतः तुम यहीं रहो’। सरस्वती के ऐसा कहने पर सारस्वत मुनि वहीं रहकर देवताओं और पितरों को तृप्त करने लगे। वे प्रतिदिन भोजन करते और अपने प्राणों तथा वेदों की रक्षा करते थे।[2]

जब बारह वर्षों की वह अनावृष्टि प्रायः बीत गयी, तब महर्षि पुनः स्वाध्याय के लिये एक-दूसरे से पूछने लगे। राजेन्द्र! उस समय भूख से पीड़ित होकर इधर-उधर दौड़ने वाले सभी महर्षि वेद भूल गये थे। कोई भी ऐसा प्रतिभाशाली नहीं था, जिसे वेदों का स्मरण रह गया हो। तदनन्तर उनमें से कोई ऋषि प्रतिदिन स्वाध्याय करने वाले शुद्धात्मा मुनिवर सारस्वत के पास आये। फिर वहाँ से जाकर उन्होंने सब महर्षियों को बताया कि ‘देवताओं के समान अत्यन्त कान्तिमान एक सारस्वत मुनि हैं, जो निर्जन वन में रहकर सदा स्वाध्याय करते हैं’। राजन! यह सुनकर वे सब महर्षि वहाँ आये और आकर मुनिश्रेष्ठ सारस्वत से इस प्रकार बोले- ‘मुने! आप हम लोगों को वेद पढ़ाइये।’ तब सारस्वत ने उनसे कहा- ‘आप लोग विधिपूर्वक मेरी शिष्यता ग्रहण करें’। तब वहाँ उन मुनियों ने कहा- ‘बेटा! तुम तो अभी बालक हो’ (हम तुम्हारे शिष्य कैसे हो सकते हैं?) तब सारस्वत ने पुनः उन मुनियों से कहा- ‘मेरा धर्म नष्ट न हो, इसलिये मैं आप लोगों को शिष्य बनाना चाहता हूं; क्योंकि जो अधर्मपूर्वक वेदों का प्रवचन करता है तथा जो अधर्म पूर्वक उन वेद मन्त्रों को ग्रहण करता है, वे दोनों शीघ्र ही हीनावस्था को प्राप्त होते हैं अथवा दोनों एक-दूसरे के वैरी हो जाते हैं। ‘न बहुत वर्षों की अवस्था होने से, न बाल पकने से, न धन से और न अधिक भाई-बन्धुओं से कोई बड़ा होता है। ऋषियों ने हमारे लिये यही धर्म निश्चित किया है कि हममें से जो वेदों का प्रवचन कर सके, वही महान है’। सारस्वत की यह बात सुनकर वे मुनि उनसे विधिपूर्वक वेदों का उपदेश पाकर पुनः धर्म का अनुष्ठान करने लगे। साठ हज़ार मुनियों ने स्वाध्याय के निमित्त ब्रह्मर्षि सारस्वत की शिष्यता ग्रहण की थी। वे ब्रह्मर्षि यद्यपि बालक थे तो भी वे सभी बड़े-बड़े महर्षि उनकी आज्ञा के अधीन रहकर उनके आसन के लिये एक-एक मुटठी कुश ले आया करते थे। श्रीकृष्ण के बड़े भाई महाबली रोहिणीनन्दन बलराम जी वहाँ भी स्नान और धन दान करके प्रसन्नतापूर्वक क्रमशः सब तीर्थों में विचरते हुए उस विख्यात महातीर्थ में गये, जहाँ कभी वृद्धा कुमारी कन्या निवास करती थी।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-17
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 51 श्लोक 18-40
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 51 श्लोक 41-53

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