वसिष्ठापवाह तीर्थ की उत्पत्ति

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में वैशम्पायन द्वारा वसिष्ठापवाह तीर्थ की उत्पत्ति का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

जनमेजय के प्रश्न का वैशम्पायन उत्तर देना

जनमेजय ने वैशम्पायन जी से पूछा- प्रभो! वसिष्ठापवाह तीर्थ में सरस्वती के जल का भयंकर वेग कैसे हुआ? सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने उन महर्षि को किस लिये बहाया? उनके साथ उसका वैर कैसे हुआ? उस वैर का कारण क्या है? महामते! मैंने जो पूछा है, वह बताइये। मैं आपके वचनों को सुनते सुनते तृप्त नहीं होता हूँ।

वैशम्पायन जी ने कहा- भारत! तपस्या में होड़ लग जाने के कारण विश्वामित्र तथा ब्रह्मर्षि वसिष्ठ में बड़ा भारी वैर हो गया था। सरस्वती के स्थाणु तीर्थ में पूर्व तट पर वसिष्ठ का बहुत बड़ा आश्रम था और पश्चिम तट पर बुद्धिमान विश्वामित्र मुनि का आश्रम बना हुआ था। महाराज! जहाँ भगवान स्थाणु ने बड़ी भारी तपस्या की थी, वहाँ मनीषी पुरुष उनके घोर तप का वर्णन करते हैं। प्रभो! जहाँ भगवान स्थाणु (शिव) ने सरस्वती का पूजन और यज्ञ करके तीर्थ की स्थापना की थी, वहाँ वह तीर्थ स्थाणु तीर्थ मे नाम से विख्यात हुआ। नरेश्वर! उसी तीर्थ में देवताओं ने देव शत्रुओं का विनाश करने वाले स्कन्द को महान सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया था। उसी सारस्वत तीर्थ में महामुनि विश्वामित्र ने अपनी उग्र तापस्या से वसिष्ठ मुनि को विचलित कर दिया था। वह प्रसंग सुनाता हूं, सुनो।

विश्वामित्र का क्रोध

भारत! विश्वामित्र और वसिष्ठ दोनों ही तपस्या के धनी थे, वे प्रतिदिन होड़ लगा कर अत्यन्त कठोर तप किया करते थे। उन में भी महामुनि विश्वामित्र को ही अधिक संताप होता था, वे वसिष्ठ का तेज देख कर चिन्तामग्न हो गये थे। भरतनन्दन! सदा धर्म में तत्पर रहने वाले विश्वामित्र मुनि के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह सरस्वती तपोधन वसिष्ठ को अपने जल के वेग से तुरंत ही मेरे समीप ला देगी और यहाँ आ जाने पर तपस्वी मुनियों में श्रेष्ठ विप्रवर वसिष्ठ का मैं वध कर डालूंगा; इसमें संशय नहीं है। ऐसा निश्चय करके पूज्य महामुनि विश्वामित्र के नेत्र क्रोध से रक्त-वर्ण हो गये।

विश्वामित्र और सरस्वती नदी का संवाद

उन्होंने सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती का स्मरण किया। उन मुनि के चिन्तन करने पर विचारशीला सरस्वती व्याकुल हो उठी। उसे ज्ञात हो गया कि ये महान शक्तिशाली महर्षि इस समय बड़े भारी क्रोध से भरे हुए हैं। इससे सरस्वती की कान्ति फीकी पड़ गयी और वह हाथ जोड़ थर-थर कांपती हुई मुनिवर विश्वामित्र की सेवा में उपस्थित हुई। जिसका पति मारा गया हो उस विधवा नारी के समान वह अत्यन्त दुखी हो गयी और उन मुनि श्रेष्ठ से बोली-‘प्रभो! बताइये, मैं आपकी किस आज्ञा का पालन करूं ?’ तब कुपित हुए मुनि ने उससे कहा- ‘वसिष्ठ को शीघ्र यहाँ बहाकर ले आओ, जिससे आज मैं इनका वध कर डालूं।’ यह सुन कर सरस्वती नदी व्यथित हो उठी। वह कमल नयना अबला हाथ जोड़ कर वायु के झकोरे से हिलायी गयी लता के समान अत्यन्त भयभीत हो जोर-जोर से कांपने लगी।[1] उसकी ऐसी अवस्था देखकर मुनि ने उस महानदी से कहा-‘तुम बिना कोई विचार किये वसिष्ठ को मेरे पास ले आओ’।

सरस्वती नदी और वसिष्ठ का संवाद

विश्वामित्र की बात सुनकर और उनकी पापपूर्ण चेष्टा जान कर वसिष्ठ के भूतल पर विख्यात अनुपम प्रभाव को जानती हुई उस नदी ने उनके पास जाकर बुद्धिमान विश्वामित्र ने जो कुछ कहा था, वह सब उन से कह सुनाया। वह दोनों के शाप से भयभीत हो बारंबार कांप रही थी। महान शाप का चिन्तन करके विश्वामित्र ऋषि के डर से बहुत डर गयी थी। राजन! उसे दुर्बल, उदास और चिन्तामग्न देख मनुष्यों में श्रेष्ठ धर्मात्मा वसिष्ठ ने कहा। वसिष्ठ बोले- सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती! तुम शीघ्र गति से प्रवाहित होकर मुझे बहा ले चलो और अपनी रक्षा करो, अन्यथा विश्वामित्र तुम्हें शाप दे देंगे; इसलिये तुम कोई दूसरा विचार मन में न लाओ। कुरुनन्दन! उन कृपाशील महर्षि का वह वचन सुन कर सरस्वती सोचने लगी, ‘क्या करने से शुभ होगा?’ उसके मन में यह विचार उठा कि ‘वसिष्ठ ने मुझ पर बड़ी भारी दया की है। अतः सदा मुझे इनका हित साधन करना चाहिये’।[2]

वसिष्ठ द्वारा सरस्वती नदी की स्तुति करना

राजन! तदनन्तर ऋषि श्रेष्ठ विश्वामित्र को अपने तट पर जप और होम करते देख सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती ने सोचा, यही अच्छा अवसर है, फिर तो उस नदी ने पूर्व तट को तोड़ कर उसे अपने वेग से बहाना आरम्भ किया। उस बहते हुए किनारे के साथ मित्रावरुण के पुत्र वसिष्ठ जी भी बहने लगे। राजन! बहते समय वसिष्ठ जी सरस्वती की स्तुति करने लगे। ‘सरस्वती! तुम पितामह ब्रह्माजी के सरोवर से प्रकट हुई हो, इसीलिये तुम्हारा नाम सरस्वती है। तुम्हारे उत्तम जल से ही यह सारा जगत व्याप्त है। ‘देवी! तुम्हीं आकाश में जाकर मेघों में जल की सृष्टि करती हो, तुम्हीं सम्पूर्ण जल हो; तुमसे ही हम ऋषिगण वेदों का अध्ययन करते हैं। ‘तुम्हीं पुष्टि, कीर्ति, द्युति, सिद्धि, बुद्धि, उमा, वाणी और स्वाहा हो। यह सारा जगत तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं समस्त प्राणियों में चार[3] प्रकार के रूप धारण करके निवास करती हो’।

विश्वामित्र द्वारा सरस्वती नदी को शाप देना

राजन! महर्षि के मुख से इस प्रकार स्तुति सुनती हुई सरस्वती ने उन ब्रह्मर्षि को अपने वेग द्वारा विश्वामित्र के आश्रम पर पहुँचा दिया और विश्वामित्र से बारंबार निवेदन किया कि ‘वसिष्ठ मुनि उपस्थित हैं’। सरस्वती द्वारा लाये हुए वसिष्ठ को देख कर विश्वामित्र कुपित हो उठे और उनके जीवन का अन्त कर देने के लिये कोई हथियार ढूंढ़ने लगे। उन्हें कुपित देख सरस्वती नदी ब्रह्म हत्या के भय से आलस्य छोड़ दोनों की आज्ञा का पालन करती हुई विश्वामित्र को धोखा देकर वसिष्ठ मुनि को पुनः पूर्व दिशा की ओर बहा ले गयी। मुनि श्रेष्ठ वसिष्ठ को पुनः अपने से दूर बहाया गया देख अमर्षशील विश्वामित्र दुःख से अत्यन्त कुपित हो बोले- ‘सरिताओं में श्रेष्ठ कल्याणमयी सरस्वती! तुम मुझे धोखा देकर फिर चली गयी, इसलिये अब जल की जगह रक्त बहाओ, जो राक्षसों के समूह को अधिक प्रिय है।[2] बुद्धिमान विश्वामित्र के इस प्रकार शाप देने पर सरस्वती नदी एक साल तक रक्त मिश्रित जल बहाती रही। तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सरा सरस्वती को उस अवस्था में देखकर अत्यन्त दुखी हो गये। नरेश्वर! इस प्रकार वह स्थान जगत में वसिष्ठापवाह के नाम से विख्यात हुआ। वसिष्ठ जी को बहाने के पश्चात सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती फिर अपने पूर्व मार्ग पर ही बहने लग गयी।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 42 श्लोक 19-38
  3. परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी- यह चार प्रकार की वाणी ही सरस्वती का चतुर्विध रूप है।
  4. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 42 श्लोक 39-41

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