कृपाचार्य का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना

महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत चौथे अध्याय में संजय ने कृपाचार्य के द्वारा दुर्योधन को पांडवों से संधि करने के लिए समझाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

कृपाचार्य द्वारा दुर्योधन को पांडवों के साथ संधि करने के लिए समझाना

संजय कहते हैं- माननीय नरेश! उस समय रणभूमि में महामनस्वी वीरों के रथ और उनकी बैठकें टूटी पड़ी थीं। सवारों सहित हाथी और पैदल सैनिक मार डाले गये थे। वह युद्धस्थल रुद्रदेव की क्रीड़ाभूमि श्मशान के समान अत्यन्त भयानक जान पड़ता था। वह सब देखकर जब आपके पुत्र दुर्योधन का मन शोक में डूब गया और उसने युद्ध से मुँह मोड़ लिया, कुन्तीपुत्र अर्जुन का पराक्रम देखकर समस्त सेनाएँ जब भय से व्याकुल हो उठीं और भारी दुःख में पड़कर चिन्तामग्न हो गयीं, उस समय मथे जाते हुए सैनिकों का जोर-जोर से आर्तनाद सुनकर तथा राजाओं के चिह्नस्वरूप ध्वज आदि को युद्धस्थल में क्षत-विक्षत हुआ देखकर प्रौढ़ अवस्था और उत्तम स्वभाव से युक्त तेजस्वी कृपाचार्य के मन में बड़ी दया आयी। भरतवंशी नरेश! वे बातचीत करने में अत्यन्त कुशल थे। उन्होंने राजा दुर्योधन के निकट जाकर उसकी दीनता देखकर इस प्रकार कहा- 'राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणे! युद्धधर्म से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं है, जिसका आश्रय लेकर क्षत्रिय लोग युद्ध में तत्पर रहते हैं। क्षत्रिय-धर्म जीवन-निर्वाह करने वाले पुरुष के लिये पुत्र, भ्राता, पिता, भानजा, मामा, सम्बन्धी तथा बन्धु बान्धव इस बस के साथ युद्ध करना कर्तव्य है। युद्ध में शत्रुओं को मारना या उसके हाथ से मारा जाना दोनों ही उत्तम धर्म है और युद्ध से भागने पर महान पाप होता है। सभी क्षत्रिय जीवन-निर्वाह की इच्छा रखते हुए उसी घोर जीविका का आश्रय लेते हैं। ऐसी दशा मैं यहाँ तुम्हारे लिये कुछ हित की बात बताऊँगा।

अनघ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण, जयद्रथ, तथा तुम्हारे सभी भाई मारे जा चुके हैं। तुम्हारा पुत्र लक्ष्मण भी जीवित नहीं है। अब दूसरा कौन बच गया है, जिसका हम लोग आश्रय ग्रहण करें। जिन पर युद्ध का भार रखकर हम राज्य पाने की आशा करते थे, वे शूरवीर तो शरीर छोड़कर ब्रह्मवेत्ताओं की गति को प्राप्त हो गये। इस समय हम लोग यहाँ भीष्म आदि गुणवान महारथियों के सहयोग से वंचित हो गये हैं और बहुत-से नरेशों को मरवाकर दयनीय स्थिति में आ गये हैं। जब सब लोग जीवित थे, तब भी अर्जुन किसी के द्वारा पराजित नहीं हुए। श्रीकृष्ण- जैसे नेता के रहते हुए महाबाहु अर्जुन देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं। उनका वानरध्वज इन्द्रधनुष के तुल्य बहुरंगा और इन्द्रध्वज के समान अत्यन्त ऊँचा है। उसके पास पहुँचकर हमारी विशाल सेना भय से विचलित हो उठती है। भीमसेन के सिंहनाद, पांचजन्य शंख की ध्वनि और गाण्डीव धनुष की टंकार से हमारा दिल दहल उठता है। जैसे चमकती हुई महाविद्युत नेत्रों की प्रभा को छीनती-सी दिखायी देती है तथा जैसे अलातचक्र घूमता देखा जाता है, उसी प्रकार अर्जुन के हाथ में गाण्डीव धनुष भी दृष्टिगोचर होता है। अर्जुन के हाथ में डोलता हुआ उनका सुवर्णजटित महान धनुष सम्पूर्ण दिशाओं में वैसा ही दिखायी देता है, जैसे मेघों की घटा में बिजली। उनके रथ में जुते हुए घोडे़ श्वेत वर्ण वाले, वेगशाली तथा चन्द्रमा और कास के समान उज्ज्वल कांति से सुशोभित हैं। वे ऐसी तीव्र गति से चलते हैं, मानों आकाश को पी जायँगे।[1]

जैसे वायु की प्रेरणा से बादल उड़ते फिरते हैं, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण द्वारा हाँके जाते हुए घोडे़, जो सुनहरे साजों से सजे होने के कारण अंगों में विचित्र शोभा धारण करते हैं, रणभूमि में अर्जुन की सवारी ढोते हैं। राजन! अर्जुन अस्त्रविद्या में कुशल हैं, उन्होंने तुम्हारी सेना को उसी प्रकार भस्म किया है, जैसे भयंकर आग ग्रीष्म ऋतु में बहुत बड़े जंगल को जला डालती है। जैसे मतवाला हाथी तालाब में घुसकर उसे मथ डालता है, उसी प्रकार हमने अर्जुन को तुम्हारी सेना को मथते और राजाओं को भयभीत करते देखा। जैसे सिंह मृगों के झुंड को भयभीत कर देता है, उसी प्रकार पाण्डुकुमार अर्जुन अपने धनुष की टंकार से तुम्हारे समस्त योद्धाओं को बारंबार भयभीत करते दिखायी दिये हैं। अपने अंगों में कवच धारण किये श्रीकृष्ण और अर्जुन जो सम्पूर्ण विश्व के महाधनुर्धर और सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ हैं, योद्धाओं के समूह में निर्भय विचरते हैं। भारत! परस्पर मार-काट मचाते हुए दोनों ओर से योद्धाओं के इस अत्यन्त भयंकर संग्राम को आरम्भ हुए आज सत्रह दिन हो गये। जैसे हवा शरद् ऋतु के बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन की मार से तुम्हारी सेनाएँ सब ओर से तितर-बितर हो गयी हैं। महाराज! जैसे महासागर में हवा के थपेडे़ खाकर नाव डगमगाने लगती है, उसी प्रकार सव्यसाची अर्जुन ने तुम्हारी सेना को कँपा डाला है। उस दिन जयद्रथ को अर्जुन के बाणों का निशाना बनते देखकर भी तुम्हारा कर्ण कहाँ चला गया था ? अपने अनुयायियों के साथ आचार्य द्रोण कहाँ थे? मैं कहाँ था? तुम कहाँ थे?

कृतवर्मा कहाँ चले गये थे और भाईयोंसहित तुम्हारा भ्राता दुःशासन भी कहाँ था? राजन! तुम्हारे सम्बन्धी, भाई, सहायक और मामा सब-के-सब देख रहे थे तो भी अर्जुन ने उन सबको अपने पराक्रम द्वारा परास्त करके सब लोगों के मस्तक पर पैर रखकर जयद्रथ को मार डाला। अब और कौन बचा है जिसका हम भरोसा करें ? यहाँ कौन ऐसा पुरुष है जो पाण्डुपुत्र अर्जुन पर विजय पायेगा? महात्मा अर्जुन के पास नाना प्रकार के दिव्यास्त्र हैं। उनके गाण्डीव धनुष का गम्भीर घोष हमारा धैर्य छीन लेता है। जैसे चन्द्रमा, उदित न होने पर रात्रि अन्धकारमयी दिखायी देती है, उसी प्रकार हमारी यह सेना सेनापति के मारे जाने पर श्रीहीन हो रही है। हाथी ने जिसके किनारे के वृक्षों को तोड़ डाला हो, उस सूखी नदी के समान यह व्याकुल हो उठी है। हमारी इस विशालवाहिनी का नेता नष्ट हो गया है। ऐसी दशा में घास-फूस के ढेर में प्रज्वलित होने वाली आग के समान श्वेत घोड़ों वाले महाबाहु अर्जुन इस सेना के भीतर इच्छानुसार विचरेंगे। उधर सात्यकि और भीमसेन दोनों वीरों का जो वेग है, वह सारे पर्वतों को विदीर्ण कर सकता है। समुद्रों को भी सुखा सकता है। प्रजानाथ! द्यूतसभा में भीमसेन ने जो बात कही थी, उसे उन्होंने सत्य कर दिखाया और जो शेष है, उसे भी वे अवश्य ही पूर्ण करेंगे। जब कर्ण के साथ युद्ध चल रहा था, उस समय कर्ण सामने ही था तो भी पाण्डवों द्वारा रक्षित सेना उसके लिये दुर्जय हो गयी; क्योंकि गाण्डीवधारी अर्जुन व्यूह रचनापूर्वक उसकी रक्षा कर रहे थे।[2]

पाण्डव साधुपुरुष हैं तो भी तुम लोगों ने अकारण ही उनके साथ जो बहुत-से अनुचित बर्ताव किये हैं, उन्हीं का यह फल तुम्हें मिला है। भरतश्रेष्ठ! तुमने अपनी रक्षा के लिये ही प्रयत्नपूर्वक सारे जगत के लोगों को एकत्र किया था, किंतु तुम्हारा ही जीवन संशय में पड़ गया है। दुर्योधन! अब तुम अपने शरीर की रक्षा करो; क्योंकि आत्मा (शरीर) ही समस्त सुखों का भाजन है। जैसे पात्र के फूट जाने पर उसमें रखा हुआ जल चारों ओर बह जाता है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने से उस पर अवलम्बित सुखों का भी अन्त हो जाता है। बृहस्पति की यह नीति है कि जब अपना बल कम या बराबर जान पड़े तो शत्रु के साथ संधि कर लेनी चाहिये। लड़ाई तो उसी वक्त छेड़नी चाहिये, जब अपनी शक्ति शत्रु से बढ़ी-चढ़ी हो। हम लोग बल और शक्ति में पाण्डवों से हीन हो गये हैं। अतः प्रभो! इस अवस्था में मैं पाण्डवों के साथ संधि कर लेना ही उचित समझता हूँ। जो राजा अपनी भलाई की बात नहीं समझता और श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान करता है, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट हो जाता है। उसे कभी कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। राजन यदि तुम राजा युधिष्ठिर के सामने नतमस्तक होकर हम अपना राज्य प्राप्त कर लें तो यही श्रेयस्कर होगा। मूर्खतावश पराजय स्वीकार करने वाले का कभी भला नहीं हो सकता। युधिष्ठिर दयालु हैं। वे राजा धृष्टद्युम्न और भगवान श्रीकृष्ण के कहने से तुम्हें राज्य पर प्रतिष्ठित कर सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण किसी से पराजित न होने वाले राजा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीमसेन से जो कुछ भी कहेंगे, वे सब लोग उसे निःसंदेह स्वीकार कर लेंगे। कुरुराज धृतराष्ट्र की बात श्रीकृष्ण नहीं टालेंगे और श्रीकृष्ण की आज्ञा का उल्लंघन युधिष्ठिर नहीं कर सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। राजन! मै इस संधि को ही तुम्हारे लिये कल्याणकारी मानता हूँ। पाण्डवों के साथ किये जाने वाले युद्ध को नहीं। मैं कायरता या प्राण-रक्षा भावना से यह सब नहीं कहता हूँ। तुम मरणासन्न अवस्था में मेरी यह बात याद करोगे'। शरद्वान के पुत्र वृद्ध कृपाचार्य इस प्रकार विलाप करके गरम-गरम लंबी साँस खींचते हुए शोक और मोह के वशीभूत हो गये।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-20
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 4 श्लोक 21-39
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 4 श्लोक 40-51

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