दुर्योधन का संधि स्वीकर न करके युद्ध का ही निश्चय करना

महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत पाँचवें अध्याय में संजय ने दुर्योधन द्वारा संधि को स्वीकर न करके युद्ध का निश्चय करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय करना

दुर्योधन बोला- 'तात! मैंने बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया। ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणाएँ दे दीं। सारी कामनाएँ पूर्ण कर लीं। वेदों का श्रवण कर लिया। शत्रुओं के माथे पर पैर रखा और भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों के पालन-पोषण की अच्छी व्यवस्था कर दी। इतना ही नहीं, मैंने दिनों का उद्धार कार्य भी सम्पन्न कर दिया है। अतः द्विजश्रेष्ठ! अब मैं पाण्डवों से इस प्रकार संधि के लिये याचना नहीं कर सकता। मैंने दूसरों के राज्य जीते, अपने राष्ट्र का निरन्तर पालन किया, नाना प्रकार के भोग भोगे; धर्म, अर्थ और काम का सेवन किया और पितरों तथा क्षत्रिय धर्म दोनों के ऋण से उऋण हो गया। संसार में कोई भी सुख सदा रहने वाला नहीं है। फिर राष्ट्र और यश भी कैसे स्थिर रह सकते हैं ? यहाँ तो कीर्ति का ही उपार्जन करना चाहिये और कीर्ति युद्ध के सिवा किसी दूसरे उपाय से नहीं मिल सकती। क्षत्रिय की भी यदि घर में मृत्यु हो जाय तो उसे निन्दित माना गया है। घर में खाट पर सोकर मरना यह क्षत्रिय के लिये महान पाप है। जो बड़े-बड़े़ यज्ञों का अनुष्ठान करके वन में या संग्राम में शरीर का त्याग करता है, वही क्षत्रिय महत्त्व को प्राप्त होता है। जिसका शरीर बुढ़ापे से जर्जर हो गया हो, जो रोग से पीड़ित हो, परिवार के लोग जिसके आसपास बैठकर रो रहे हो और उन रोते हुए स्वजनों के बीच में जो करूण विलाप करते-करते अपने प्राणों का परित्याग करता है, वह पुरुष कहलाने योग्य नहीं है। अतः जिन्होंने नाना प्रकार के भोगों का परित्याग करके उत्तम गति प्राप्त कर ली है, इस समय युद्ध के द्वारा मैं उन्हीं के लोकों में जाऊँगा।[1] जिसके आचरण श्रेष्ठ हैं जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते, अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाते और यज्ञों द्वारा यजन करने वाले हैं तथा जिन्होंने शस्त्र की धारा में अवभृथस्नान किया है, उन समस्त बुद्धिमान पुरुषों का निश्चय ही स्वर्ग में निवास होता है। निश्चय ही युद्ध में प्राण देने वालों की ओर अप्सराएँ बड़ी प्रसन्नता से निहारा करती हैं। पितृगण उन्हें अवश्य ही देवताओं की सभा में सम्मानित होते देखते हैं। वे स्वर्ग में अप्सराओं से घिरकर आनंदित होते देखे जाते हैं।

देवता तथा युद्ध में पीठ न दिखाने वाले शूरवीर जिस मार्ग से जाते हैं, क्या उसी मार्ग पर अब हम लोग भी वृद्ध पितामह, बुद्धिमान आचार्य द्रोण, जयद्रथ, कर्ण तथा दुःशासन के साथ आरूढ़ होंगे? कितने ही वीर नरेश मेरी विजय के लिये यथाशक्ति चेष्टा करते हुए बाणों से क्षत-विक्षत हो मारे जाकर रक्तरंजित शरीर से संग्रामभूमि में सो रहे हैं। उत्तम अस्त्रों के ज्ञाता और शस्त्रोंक्त विधि से यज्ञ करने वाले अन्य शूरवीर यथोचित रीति से युद्ध में प्राणों का परित्याग करके इन्द्रलोक में प्रतिष्ठित हो रहे हैं। उन वीरों ने स्वयं ही जिस मार्ग का निर्माण किया है, वह पुनः बड़े वेग से सद्गति को जाने वाले बहुसंख्यक वीरों द्वारा दुर्गम हो जाय (अर्थात इतने अधिक वीर उस मार्ग से यात्रा करें कि भीड़ के मारे उस पर चलना कठिन हो जाये)। जो शूरवीर मेरे लिये मारे गये हैं, उनके उस उपकार का निरन्तर स्मरण करता हुआ उस ऋण को उतारने की चेष्टा में संलग्न होकर मैं राज्य में मन नहीं लगा सकता। मित्रों, भाईयों और पितामहों को मरवाकर यदि मैं अपने प्राणों की रक्षा करुँ तो सारा संसार निश्चय ही मेरी निंदा करेगा। बंधु-बांधवों और मित्रों से हीन हो युधिष्ठिर के पैरों में पड़ने पर मुझे जो राज्य मिलेग, वह कैसा होगा?' इस प्रकार राजा दुर्योधन की कही हुई बात सुनकर सब क्षत्रियों ने बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कहकर उसका आदर किया और उसे भी धन्यवाद दिया। सबने अपनी पराजय का शोक छोड़कर मन-ही-मन पराक्रम करने का निश्चय किया। युद्ध करने के विषय में सबका पक्का विचार हो गया और सबके हृदय में उत्साह भर गया। तत्पश्चात् सब योद्धाओं ने अपने-अपने वाहनों को विश्राम दे युद्ध का अभिनन्दन किया और आठ कोस से कुछ कम दूरी पर जाकर डेरा डाला। आकाश के नीचे हिमालय के शिखर की सुन्दर, पवित्र एवं वृक्षरहित चौरस भूमि पर अरुणसलिला सरस्वती के निकट जाकर उन सबने स्नान और जलपान किया। राजन! वे कालप्रेरित समस्त क्षत्रिय आपके पुत्र द्वारा उत्साह देने पर एक दूसरे के द्वारा मन को स्थिर करके पुनः रणभूमि की ओर लौटे।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 5 श्लोक 20-35
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 5 श्लोक 36-52

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