शकुनि का कूट युद्ध और उसकी पराजय

महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत 23वें अध्याय में शकुनि का कूट युद्ध और उसकी पराजय का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

कौरव सेना का पुन: भागना

संजय कहते हैं- राजन! जब दोनों पक्ष की सेनाओं के मध्य मर्यादा शून्य घोर संग्राम हो रहा था। उस समय गान्धारराजा के पुत्र शकुनि ने कौरव योद्धाओं से कहा- वीरों! तुम लोग सामने से युद्ध करो और मैं पीछे से पाण्डवों का संहार करता हूँ। इस सलाह के अनुसार जब हम लोग चले तो मद्रदेश के वेगशाली योद्धा तथा अन्य सैनिक हर्ष से उल्लसित हो किलकारियाँ भरने लगे। इतने ही में दुर्धर्ष पाण्डव पुन: हमारे पास आ पहुँचे और हमें अपने लक्ष्य के रूप में पाकर धनुष हिलाते हुए हम लोगों पर बाणों की वर्षा करने लगे। थोड़ी ही देर में शत्रुओं ने वहाँ मद्रराज की सेना का संहार कर डाला। यह देख दुर्योधन की सेना पुन: पीठ दिखाकर भागने लगी।

शकुनि द्वारा पांडव सेना का संहार करना

तब बलवान गान्धारराज शकुनि ने पुनः इस प्रकार कहा-अपने धर्म को न जानने वाले पापियो! इस तरह तुम्हारे भागने से क्या होगा? लौटो और युद्ध करो। भरतश्रेष्ठ! उस समय गान्धारराज शकुनि के पास विशाल प्रास लेकर युद्ध करने वाले घुड़सवारों की दस हजार सेना मौजूद थी। उसी को साथ लेकर वह उस जन-संहारकारी युद्ध में पाण्डव-सेना के पिछले भाग की ओर गया और वे सब मिलकर पैने बाणों से उस सेना पर चोट करने लगे। महाराज! जैसे वायु के वेग से मेघों का दल सब ओर से छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार इस आक्रमण से पाण्डवों की विशाल सेना का व्यूह भंग हो गया।

युधिष्ठिर का संवाद

तब युधिष्ठिर ने पास ही अपनी सेना में भगदड़ मची देख शांतभाव से महाबली सहदेव को पुकारा। और कहा-पाण्डनन्दन! कवच धारण करके आया हुआ वह सुबलपुत्र शकुनि हमारी सेना के पिछले भाग को पीड़ा देकर सारे सैनिकों का संहार कर रहा है; इस दुर्बुद्धि को देखो तो सही। निष्पाप वीर! तुम द्रौपदी के पुत्रों को साथ लेकर जाओ और सुबलपुत्र शकुनि को मार डालो। मैं पांचाल योद्धाओं के साथ यहीं रहकर शत्रु की रथसेना को भस्म कर डालूँगा। तुम्हारे साथ सभी हाथीसवार, घुड़सवार और तीन हजार पैदल सैनिक भी जाय तथा उन सबसे घिरे रहकर तुम शकुनि का नाश करो।

पांडव योद्धओं का शकुनि पा आक्रमण करना

तदनन्तर धर्मराज की आज्ञा के अनुसार हाथ में धनुष लिये बैठे हुए सवारों से युक्त सात सौ हाथी, पांच हजार घुड़सवार, पराक्रमी सहदेव, तीन हजार पैदल योद्धा और द्रौपदी के सभी पुत्र- इन सबने रणभूमि में युद्ध-दुर्भद शकुनि पर धावा किया। राजन! उधर विजयाभिलाषी प्रतापी सुबलपुत्र शकुनि पाण्डवों का उल्लंघन करके पीछे की ओर से उनकी सेना का संहार कर रहा था। वेगशाली पाण्डवों के घुड़सवारों ने अत्यन्त कुपित होकर उन कौरव रथियों का उल्लंघन करके सुबलपुत्र की सेना में प्रवेश किया। वे शूरवीर घूड़सवार वहाँ जाकर रणभूमि के मध्यभाग में खडे़ हो गये और शकुनि की उस विशाल सेना पर बाणों की वर्षा करने लगे।

रणभूमि की स्थिति

राजन! फिर तो आपकी कुमन्त्रणा के फलस्वरूप वह महान युद्ध आरम्भ हो गया, जो कायरों से नहीं, वीर पुरुषों से सेवित था। उस सयम सभी योद्धाओं के हाथों में गदा अथवा प्रास उठे रहते थे। धनुष की प्रत्यंचा के शब्द बंद हो गये। रथी योद्धा दर्शक बनकर तमाशा देखने लगे। उस समय अपने या शत्रुपक्ष के योद्धाओं में पराक्रम की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। भरतश्रेष्ठ! शूरवीरों की भुजाओं से छूटी हुई शक्तियाँ शत्रुओं पर इस प्रकार गिरती थीं, मानों आकाश से तारे टूटकर पड़ रहे हों। कौरव-पाण्डव योद्धा ने इसे प्रत्यक्ष देखा था। प्रजानाथ! वहाँ गिरती हुई निर्मल ऋष्टियों से व्याप्त हुए आकाश की बड़ी शोभा हो रही थी।[1] भरतकुलभूषण नरेश! उस समय सब ओर गिरते हुए प्रासों का स्वरूप आकाश में छाये हुए टिड्डीदलों के समान जान पड़ता था। सैकड़ों और हजारों घोड़ें अपने घायल सवारों के साथ सारे अंगों में लहू-लुहान होकर धरती पर गिर रहे थे। बहुत-से सैनिक परस्पर टकराकर एक दूसरे से पिस जाते और क्षत-विक्षत हो मुखों से रक्त वमन करते हुए दिखायी देते थे। शत्रुदमन नरेश! तत्पश्चात जब सेना द्वारा उठी हुई धूल से सब ओर घोर अन्धकार छा गया, उस समय हमने देखा कि बहुत-से योद्धा वहाँ से भागे जा रहे हैं।[2]

राजन! धूल से सारा रणक्षेत्र भर जाने के कारण अँधेरे-में बहुत-से घोड़ों और मनुष्यों को भी हमने भागते देखा था। कितने ही योद्धा पृथ्वी पर गिरकर मुँह से बहुत-सा रक्त वमन कर रहे थे। बहुत-से मनुष्य परस्पर केश पकड़कर इतने सट गये थे कि कोई चेष्टा नहीं कर पाते थे। कितने ही महाबली योद्धा एक दूसरे को घोड़ों की पीठों से खींच रहे थे। बहुत-से सैनिक पहलवानों की भाँति परस्पर भिड़कर एक दूसरे पर चोट करते थे। कितने ही प्राणशून्य होकर अश्वों द्वारा इधर-उधर घसीटे जा रहे थे। बहुतेरे विजयाभिलाषी तथा अपने को शूरवीर मानने वाले हजारों रक्तरंजित शरीरों से रणभूमि आच्छादित दिखायी देती थी। सवारों सहित घोड़ों की लाशों से पटे हुए भूतल पर किसी के लिये भी घोड़े द्वारा दूर तक जाना असम्भव हो गया था। योद्धाओं के कवच रक्त से भीग गये थे। वे सब हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये धनुष उठाये नाना प्रकार के भयंकर आयुधों द्वारा एक दूसरे के वध की इच्छा रखते थे। उस संग्राम में सभी योद्धा अत्यन्त निकट होकर युद्ध करते थे और उनमें से अधिकांश सैनिक मार डाले गये थे।

पांडव सेना के घुड़सवारों का आपस में वार्तालाप

प्रजानाथ! शकुनि वहाँ दो घड़ी युद्ध करके शेष बचे हुए छः हजार घुड़सवारों के साथ भाग निकला। इसी प्रकार खून से नहायी हुई पाण्डव सेना भी शेष छःहजार घुड़सवारों के साथ युद्ध से निवृत हो गयी। उसके सारे वाहन थक गये थे। उस समय उस निकटवर्ती महायुद्ध में प्राणों का मोह छोड़कर जूझने वाले पाण्डव सेना के रक्तरंजित घुड़सवार इस प्रकार बोले- यहाँ रथों द्वारा भी युद्ध नहीं किया जा सकता। फिर बड़े-बड़े़ हाथियों की तो बात ही क्या है? रथ रथों का सामना करने के लिये जाय हाथी हाथियों का। शकुनि भागकर अपनी सेना में चला गया। अब फिर राजा शकुनि युद्ध में नहीं आयेगा।

उनकी यह बात सुनकर द्रौपदी के पाँचों पुत्र और वे मतवाले हाथी वहीं चल गये, जहाँ पांचाल राजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न थे। कुरुनन्दन! वहाँ धूल का बादल-सा घिर आया था। उस समय सहदेव भी अकेले ही, जहाँ राजा युधिष्ठिर थे, वहीं चले गये। उन सबके चले जाने पर सुबलपुत्र शकुनि पुनः कुपित हो पाश्र्वभाग से आकर धृष्टद्युम्न की सेना का संहार करने लगा। फिर तो परस्पर वध की इच्छा वाले आपके और शत्रुपक्ष के सैनिकों में प्राणों का मोह छोड़कर भयंकर युद्ध होने लगा। राजन! शूरवीरों के उस संघर्ष में सब ओर से सैकड़ों हजारों योद्धा टूट पड़े और वे एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उस लोकसंहारकारी संग्राम में तलवारों से काटे जाते हुए मस्तक जब पृथ्वी पर गिरते थे, तब उनसे ताड़ के फलों के गिरने की-सी धमाके की आवाज होती थी।[2]

दोनों पक्ष के सैनिकों का युद्ध

प्रजानाथ! छिन्न-भिन्न होकर धरती पर गिरने वाले कवचशून्य शरीरों, आयुधों सहित भुजाओं और जाँघों का अत्यन्त भयंकर एवं रोमांचकारी कट-कट शब्द सुनायी पड़ता था। जैसे पक्षी मांस के लिये एक-दूसरे पर झपटते हैं, उसी प्रकार वहाँ योद्धा अपने तीखे शस्त्रों द्वारा भाईयों, मित्रों और पुत्रों का भी संहार करते हुए एक-दूसरे पर टूट पड़ते थे। दोनों पक्षों के योद्धा एक दूसरे से भिड़कर परस्पर अत्यन्त कुपित हो पहले में, पहले में ऐसा कहते हुए सहस्रों सैनिकों का वध करने लगे। शत्रुओं के आघात से प्राणशून्य होकर आसन से भ्रष्ट हुए अश्वारोहियों के साथ सैकड़ों और हजारों घोड़े धराशायी होने लगे। प्रजापालक नरेश! आपकी खोटी सलाह के अनुसार बहुत-से शीघ्रगामी अश्व गिरकर छटपटा रहे थे। कितने ही पिस गये थे और बहुत से कवचधारी मनुष्य गर्जना करते हुए शत्रुओं के मर्म विदीर्ण कर रहे थे। उन सबके शक्ति, ऋष्टि और प्रासों का भयंकर शब्द वहाँ गूजँने लगा था।[3]

आपके सैनिक परिश्रम से थक गये थे, क्रोध में भरे हुए थे, उनके वाहन भी थकावट से चूर-चूर हो रहे थे और वे सब-के-सब प्यास से पीड़ित थे। उनके सारे अंग तीक्ष्ण शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो गये थे। वहाँ बहते हुए रक्त की गन्ध से मतवाले हो बहुत-से सैनिक विवेक-शक्ति खो बैठे थे और बारी-बारी अपने पास आये हुए शत्रुपक्ष के तथा अपने पक्ष के सैनिकों का भी वध कर डालते थे। राजन! बहुत से विजयभिलाषी क्षत्रिय बाणों की वर्षा से आच्छादित हो प्राणों का परित्याग करके पृथ्वी पर पड़े। भेडि़यो, गींधों और सियारों का आनंद बढ़ाने वाले उस भयंकर दिन में आपके पुत्र की आँखों के सामने कौरव सेना का घोर संहार हुआ। प्रजानाथ! वह रणभूमि मनुष्यों और घोड़ों की लाशों से पट गयी थी तथा पानी की तरह बहाये जाते हुए रक्त विचित्र शोभा धारण करके कायरों का भय बढ़ा रही थी। भारत! खड्गों पट्टिशों और शूलों से एक दूसरे को बारंबार घायल करते हुए आपके और पाण्डवों के योद्धा युद्ध से पीछे नहीं हटते थे। जब तक प्राण रहते, तब तक यथा शक्ति प्रहार करते हुए योद्धा अन्ततोगत्वा अपने घावों से रक्त बहाते हुए धराशायी हो जाते थे। वहाँ कोई-कोई कबन्ध (धड़) ऐसा दिखायी दिया, जो एक हाथ में शत्रु के कटे हुए मस्तक को केशसहित पकडे़ हुए और दूसरे हाथ में खून से रँगी हुई तीखी तलवार उठाये खड़ा था। नरेश्वर! फिर उस तरह के बहुत-से स्कन्ध उठे दिखायी देने लगे तथा रूधिर की गन्ध से प्रायः सभी योद्धाओं पर मोह छा गया था।

तत्पश्चात जब उस युद्ध का कोलाहल कुछ कम हुआ, तब सुबलपुत्र शकुनि थोडे़-से बचे हुए घुड़सवारों के साथ पुनः पाण्डवों की विशाल सेना पर टूट पड़ा। तब विजयाभिलाषी पाण्डवों ने भी तुरन्त उस पर धावा कर दिया। पाण्डव युद्ध से पार होना चाहते थे; अतः उनके पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार सभी हथियार उठाये आगे बढे़ तथा शकुनि को सब ओर से घेरकर उसे कोष्ठबद्ध करके नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा घायल करने लगे पाण्डव सैनिकों को सब ओर से आक्रमण करते देख आपके रथी, घुड़सवार, पैदल और हाथीसवार भी पाण्डवों पर टूट पड़े। कुछ शूरवीर पैदल योद्धा समरांगण में पैदलों के साथ भिड़ गये और अस्त्र-शस्त्रों के क्षीण हो जाने पर एक दूसरे को मुक्कों से मारने लगे। इस प्रकार लड़ते-लड़ते वे पृथ्वी पर गिर पड़े। जैसे सिद्ध पुरुष पुण्यक्षय होने पर स्वर्गलोक के विमानों से नीचे गिर जाते हैं, उसी प्रकार वहाँ रथी रथों से और हाथी सवार हाथियों से पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार उस महायुद्ध में दूसरे-दूसरे योद्धा परस्पर विजय के लिये प्रयत्नशील हो पिता, भाई, मित्र और पुत्रों का भी वध करने लगे। भरतश्रेष्ठ! प्रास, खड्ग और बाणों से व्याप्त हुए उस अत्यन्त भयंकर रणक्षेत्र में इस प्रकार मर्यादा फशून्य युद्ध हो रहा था।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 23 श्लोक 23-46
  2. 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 23 श्लोक 47-68
  3. 3.0 3.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 23 श्लोक 69-92

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