- महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 32वें अध्याय में दुर्योधन का किसी एक पांडव से गदायुद्ध हेतु तैयार होने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
जल से बाहर आये हुए दुर्योधन की शोभा
संजय कहते हैं- राजन! नरेश्वर! सम्पूर्ण पाञ्चालों ने आपके पुत्र को वज्रधारी इन्द्र और त्रिशूलधारी रुद्र के समान देखा। उसे जल से बाहर निकला देख समस्त पाञ्चाल और पाण्डव हर्ष से खिल उठे और एक-दूसरे से हाथ मिलाने लगे। महाराज! उनके इस हाथ मिलाने को दुर्योधन ने अपना उपहास समझा; अतः क्रोधपूर्वक आंखें घुमा कर पाण्डवों की ओर इस प्रकार देखा, मानो उन्हें जला कर भस्म कर देना चाहता हो। उसने अपनी भौहों को तीन जगह से टेढ़ी करके दांतों से ओठ को दबाया और श्रीकृष्ण सहित पाण्डवों से इस प्रकार कहा। दुर्योधन बोला- पाञ्चालो और पाण्डवो! इस उपहास का फल तुम्हें अभी भोगना पड़ेगा; मेरे हाथ से मारे जाकर तुम तत्काल यमलोक में पहुँच जाओगे।
संजय कहते हैं- राजन! आप का पुत्र दुर्योधन उस जल से निकल कर हाथ में गदा लिये खड़ा हो गया। वह रक्त से भीगा हुआ था। उस समय खून से लथपथ हुए दुर्योधन का शरीर पानी से भीग कर जल का स्त्रोत बहाने वाले पर्वत के समान प्रतीत होता था। वहाँ हाथ में गदा उठाये हुए वीर दुर्योधन को पाण्डवों ने क्रोध में भरे हुए यमराज तथा हाथ में त्रिशूल लेकर खड़े हुए रुद्र के समान समझा। उस पराक्रमी वीर ने हंकड़ते हुए सांड़ के समान मेघ के तुल्य गम्भीर गर्जना करते हुए बड़े हर्ष के साथ गदा युद्ध के लिये पाण्डवों का ललकारा।
दुर्योधन का युधिष्ठिर से संवाद
दुर्योधन बोला- युधिष्ठिर! तुम लोग एक-एक करके मेरे साथ युद्ध के लिये आते जाओ। रणभूमि में किसी एक वीर को बहुसंख्यक वीरों के साथ युद्ध के लिये विवश करना न्याय संगत नहीं है। विशेषतः उस वीर को जिसने अपना कवच उतार दिया हो, जो थक कर जल में गोता लगा कर विश्राम कर रहा हो, जिसके सारे अंग अत्यन्त घायल हो गये हों तथा जिसके वाहन और सैनिक मार डाले गये हों, किसी समूह के साथ युद्ध के लिये बाध्य करना कदापि उचित नहीं है। मुझे तो तुम सब लोगों के साथ अवश्य युद्ध करना है; परंतु इसमें क्या उचित है और क्या अनुचित; इसे तुम सदा अच्छी तरह जानते हो।
युधिष्ठिर ने कहा- सुयोधन! जब तुम बहुत से महारथियों ने मिलकर युद्ध में अभिमन्यु को मारा था, उस समय तुम्हारे मन में ऐसा विचार क्यों नहीं उत्पन्न हुआ?[1] वास्तव में क्षत्रिय धर्म बड़ा ही क्रूर, किसी की भी अपेक्षा न रखने वाला तथा अत्यन्त निर्दय है; अन्यथा तुम सब लोग धर्मज्ञ, शूरवीर तथा युद्ध में शरीर का विसर्जन करने को उद्यत रहने वाले होकर भी उस असहाय अवस्था में अभिमन्यु का वध कैसे कर सकते थे? न्यायपूर्वक युद्ध करने वाले वीरों के लिये परम उत्तम इन्द्रलोक की प्राप्ति बतलायी गयी है। ‘बहुत से योद्धा मिलकर किसी एक वीर को न मारें’ यदि यही धर्म है तो तुम्हारी सम्मति से अनेक महारथियों ने अभिमन्यु का वध कैसे किया? प्रायः सभी प्राणी जब स्वयं संकट में पड़ जाते हैं तो अपनी रक्षा के लिये धर्मशास्त्र की दुहाई दने लगते हैं और जब अपने उच्च पद पर प्रतिष्ठित होते हैं, उस समय उन्हें परलोक का दरवाजा बंद दिखायी देता है।[2]
युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन को वचन देना
वीर भरतनन्दन! तुम कवच धारण कर लो, अपने केशों को अच्छी तरह बांध लो तथा युद्ध की और कोई आवश्यक सामग्री जो तुम्हारे पास न हो, उसे भी ले लो। वीर! मैं पुनः तुम्हें एक अभीष्ट वर देता हूं- ‘पाचों पाण्डवों में से जिसके साथ युद्ध करना चाहो, उस एक का ही वध कर देने पर तुम राजा हो सकते हो अथवा यदि स्वयं मारे गये तो स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे। शूरवीर! बताओ, युद्ध में जीवन की रक्षा के सिवा तुम्हारा और कौन सा प्रिय कार्य हम कर सकते हैं?
दुर्योधन का किसी एक पांडव से गदायुद्ध हेतु तैयार होना
संजय कहते हैं- राजन! तदन्नतर आपके पुत्र ने सुवर्णमय कवच तथा स्वर्णजटित विचित्र शिरस्त्राण धारण किया। महाराज! शिरस्त्राण बांधकर सुन्दर सुवर्णमय कवच धारण करके आप का पुत्र स्वर्णमय गिरिराज मेरु के समान शोभा पाने लगा। नरेश्वर! युद्ध के मुहाने पर सुसज्जित हो कवच बांधे और गदा हाथ में लिये आपके पुत्र दुर्योधन ने सतस्त पाण्डवों से कहा- ‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे भाइयों में से कोई एक मेरे साथ गदा द्वारा युद्ध करे। मैं सहदेव, नकुल, भीमसेन, अर्जुन अथवा स्वयं तुम से भी युद्ध कर सकता हूँ। ‘रणक्षेत्र में पहुँच कर मैं तुम में से किसी एक के साथ युद्ध करूंगा और मेरा विश्वास है कि समरांगण में विजय पाऊंगा। पुरुष सिंह! आज मैं सुवर्णपत्र जटित गदा के द्वारा वैर के उस पार पहुँच जाऊंगा, जहाँ जाना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। ‘मैं इस बात को सदा याद रखता हूँ कि ‘गदा युद्ध में मेरी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है।’ गदा के द्वारा सामने आने पर मैं तुम सभी लोगों को मार डालूंगा। ‘तुम सभी लोग अथवा तुम में से कोई भी मेरे साथ न्यायपूर्वक युद्ध करने में समर्थ नहीं हो। मुझे स्वयं ही अपने विषय में इस प्रकार गर्व से उद्धत वचन नहीं कहना चाहिये, तथापि कहना पड़ा है अथवा कहने की क्या आवश्यकता? मैं तुम्हारे सामने ही यह सब सफल कर दिखाऊंगा। ‘मेरा वचन सत्य है या मिथ्या, यह इसी मुहूर्त में स्पष्ट हो जायगा। आज मेरे साथ जो भी युद्ध करने को उद्यत हो, वह गदा उठावे’।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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