महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
युद्ध की ओर
यह सुनकर कुन्ती देवी रो पड़ीं। उसका हाथ पकड़ कर कहा- "मेरे लाल! तेरी माता राधा नहीं, मैं हूँ।" कर्ण ने रुखाई से कहा- "जानता हूं, अम्बे, कि आपने ही मुझे जन्म दिया, परन्तु जन्म देकर आपने मुझे मारना भी चाहा था। इसलिए जिसने मुझे बचाया और पाला अब तो वही मेरी माता है।" कुन्ती बोली- "बेटा, स्त्री की मजबूरी को तो तू नहीं समझ सकता। अपना बस चलते कोई भी मां अपने बच्चे को त्याग नहीं सकती। जो हुआ उसे भूल जाओ।" "भूल कैसे जाऊं मां? और यदि भूलना भी चाहूँ तो परिस्थितियां मुझे भूलने न देंगी।" "तो क्या परिस्थितियों के कारण तू अपने सगे छोटे भाइयों से लड़ेगा?" मेरे भाई अब दुर्योधन आदि हैं, उन्होंने ही मुझे सहारा देकर आज सब तरह से लायक बनाया है। यदि उनका साथ छोड़ दूं तो क्या मैं, विश्वासघाती न कहलाऊंगा मां?" कर्ण का उत्तर सुनकर कुन्ती एक क्षण के लिए मौन हो गई, फिर कहा- "खैर, इस बात को जाने दो। मैंने सुना है कि तुम जैसे शूरवीर हो वैसे दानवीर भी हो। तुम्हारे यहाँ से कोई भी निराश होकर नहीं लौटता। क्या तुम मुझे अपने भाइयों का प्राणदान दोगे?" कर्ण विचार में पड़ गया। कुछ सोचकर बोला- "मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मां अर्जुन को छोड़कर मैं और किसी से नहीं लडूंगा। युद्ध में यदि मैं मारा गया तो कोई बात ही नहीं, किन्तु यदि अर्जुन मारा गया तो भी तुम्हारी विशेष हानि न होगी। तुम्हारे पांच बेटे तब भी बने ही रहेंगे।" "बेटा, मैं चाहती हूँ कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र की हैसियत से तू ही राजगद्दी पर बैठे। युधिष्ठिर दुर्योधन की तरह स्वार्थी नहीं है। जब वह सत्य को जान लेगा तब स्वयं ही वह तुम्हें राजमुकुट पहनने का आग्रह करेगा।" "परन्तु मैं युधिष्ठिर का वह अधिकार नहीं छीनना चाहता जो उसे अब तक प्राप्त है। मेरे ऐसा करने पर लोक को मेरी मां की पाप कथा भी मालूम हो जायेगी। नहीं मां, इन सब प्रलोभनों से तुम मेरा मन नहीं बदल सकोगी।" कुन्ती माता निराश होकर लौट आयीं। वे इस बात को भली-भाँति जान गयीं कि कर्ण को उसके धर्म से डिगाना असम्भव है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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