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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
सुन्द, उपसुन्द की कथा
एक दिन नारद जी धर्मराज युधिष्ठिर के दरबार में पधारे। युधिष्ठिर जी ने उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया। पांचों भाई बड़े प्रेम और आदर-मान सहित नारद जी की सेवा करने लगे। दिन में भोजन इत्यादि करके जब पांचों भाई नारद जी के पास आकर बैठे तो उन्होंने कहा- "हे धर्मात्मा पाण्डव, तुम्हारी उन्नति देखकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ हूँ। तुम्हारा भला करने के लिए मैं तुम्हें एक सुन्दर कथा सुनाऊंगा। तुम लोग ध्यान से सुन्द, उपसुन्द नामक दो भाइयों की कथा सुनो"- पुराने समय में प्रतापी असुर राजा हिरण्यकशिपु के वंश में निकुम्भ नामक एक बहुत प्रतापी और समझदार व्यक्ति हुआ था। वह असुरों का मुखिया था। सुन्द, उपसुन्द उसी निकुम्भ के बेटे थे। उस समय मध्य एशिया से लेकर भरत खण्ड तक और मिस्त्र तथा अरब और आधुनिक यूरोप के कई देशों की एक ही जन-कबीले की अलग-अलग शाखाएं फैली हुई थीं। वैसे जाति की दृष्टि से देव और असुर दोनों एक ही थे। रावण, जिसकी ननिहाल हेतिकुल[1]में भी, वह आर्य था, उसके पिता का वंश भी आर्य था। और राम का इक्ष्वाकुं वंश भी आर्य ही था। इनमें आपस में दो धार्मिक वर्ग बन गए थे। एक असुर धर्मी था, दूसरा देव धर्मी। यज्ञ और तप दोनों ही करते थे। वेद भी दोनों के लिए ही पूज्य था, बस लड़ाई इस बात की थी कि एक वर्ग प्राण शक्ति यानी ‘असु’ को ही सर्वोच्च शक्ति मानता था। असुर प्रायः शिव यानी हर के उपासक थे। उनके लिए हर से ऊंचा और कोई नहीं था। उस समय कश्यप सागर यानी आधुनिक कस्पियन सागर के पास आर्यों की एक मुख्य प्रशाखा हरिवंश की रहती थी। आधुनिक इतिहासकार इन्हें ही ‘हर्री’ कहते हैं और आर्य शब्द का विकास ‘हर्री’ शब्द से ही मानते हैं। ये हरि लोग प्राण से दिव्य यानी आत्मा को बड़ा मानते थे। यह लोग सूर्य-विष्णु के उपासक थे। इन देवधर्मियों का संगठन भी कुछ कम नहीं था। सोने की खान वाले पहाड़, सुवर्ण मेरु, जिसे आजकल तुर्की भाषा में अल्लाई कहते हैं, कभी देवधर्मियों के अधिकार में हो जाते थे और कभी असुरधर्मियों के। असुर सुन्द, उपसुन्द दोनों भाइयों में चूंकि जबरदस्त एका और संगठन था, इसलिए यह लोग इन दिनों देवधर्मियों से तगड़े पड़ रहे थे। सुन्द, उपसुन्द दोनों भाइयों ने मिलकर ब्रह्मा जी की तपस्या की और अपने कठोर तप से यह समझ पाई कि जब तक हम दोनों भाई आपस में नहीं लड़ेंगे, तब तक हमें कोई मार नहीं सकेगा। अपनी एकता, बुद्धि और शक्ति के बल पर दोनों भाइयों ने आस-पास के बहुत से राज्यों को जीत लिया। हीरे-मोती जवाहरात और सोना-चाँदी लूटने के लालच में दोनों भाइयों ने ऐसी सख्ती बरती कि दूर-दूर तक लोग-बाग उन दोनों भाइयों के नाम सुनकर ही थर्रा उठते थे। भाइयों में एका इतना प्रबल था कि उन दोनों के बीच किसी तीसरे की दाल गल ही नहीं सकती थी। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आधुनिक उच्चारण में हित्ती, हिट्टी, हित्ताइत कही जाने वाली जाति
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