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महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
परीक्षित के दो जन्म
जिन दिनों उत्तरा के बच्चा होने वाला था उन्हीं दिनों में शुभ-संयोग से श्रीकृष्ण भी हस्तिनापुर आ गये थे। अश्वमेध यज्ञ की तैयारियों के सम्बन्ध में उचित सलाह देने के लिए ही उन्हें यहाँ बुलाया गया था। जिस दिन उत्तरा को बच्चा होने वाला था उस दिन रनिवास में हर लौंडी-बांदी से लेकर द्रौपदी महारानी और सुभद्रा महारानी तक हर एक का ध्यान बस उत्तरा की ओर ही लगा हुआ था। बड़ी-बड़ी कुशल दाइयां वहाँ पहले से ही मौजूद थीं। बाहर दरबार में पल-पल पर नौकर महाराज को संदेश देता रहता था। राम-राम करके बालक के जन्म की घड़ी आयी। कांसे की परात बजने का और खुशियां मनाने का उत्साह अभी उमगा ही था कि महलों में एकाएक रोना पुकारना मच गया। दरबार में घबराहट फैल गीय। भीतर से यह खबर आयी कि बच्चा पैदा तो हुआ है किन्तु शीघ्र ही मर जायगा। उसके हृदय भी धड़कन ठीक तरह से संचालित नहीं हो रही है और वह अभी रो भी नहीं पाया है। युधिष्ठिर ने घबरा कर कुशल वैद्यों को बुलाने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण बोले- “प्राण गति को साधने की एक युक्ति मैं भी जानता हूँ जब तक वैद्य लोग आयें तब तक मैं अपना प्रयोग सफल करके देखूंगा।” बचपन में कृष्ण स्वयं पूतना रोग के शिकार हो चुके थे। गले में जाली पड़ जाने से पूतना रोग में बच्चा घुट-घुट कर मर जाता है। कृष्ण चूंकि दैव-संयोग से ही उससे बच गये थे, इसलिए उन्होंने इस प्रकार के रोगी की कुछ जानकारी भी केवल अपने शौक में प्राप्त की थी। श्रीकृष्ण की प्राण संजीवनी विद्या के प्रताप से थोड़ी ही देर में बालक कुवां-कुवां करके अपना गला फाड़ने लगा। शिशु का रोना सुनकर औरतों की रोती आंखें खुशी के जादू से चटपट सूख गयीं। श्रीकृष्ण की कृपा से पाण्डव कुल में नया उजाला आया, शोक मिटा और मंगल बधावे बजने लगे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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