महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
वनगमन
पाण्डव अपने महलों में आये। द्रौपदी से कहा कि राजपाट छूट गया, अब तुम भी तापसी का वेष धारण करो और महलवासिनी से वनवासिनी बनो। रानी द्रौपदी जब तपस्विनी का वेश धारण कर राजमाता कुन्ती और दूरी बड़ी-बूढ़ियों से भेंट करने के लिए गयी तो राजमाता उन्हें देखकर शोक के मारे मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। सब स्त्रियां जोर-जोर से विलाप करने लगीं। किसी प्रकार कुन्ती माता को होश में लाया गया, समझाया-बुझाया गया। माता कुन्ती से आशीर्वाद लेकर पाण्डव लोग द्रौपदी के साथ वनवास को चले। अनेक दास-दासियां और स्वामिभक्त राजकर्मचारी लोग भी उनके पीछे हो लिये। प्रजा के लोग तो मानो दीवाने ही हो गये, वे कहते थे कि जहाँ हमारे धर्मराज जायेंगे, वहीं हम भी जाकर रहेंगे। हम दुर्योधन जैसे दुराचारी और पाप बुद्धिवाले राजा के अधीन कदापि नहीं रहेंगे। प्रजा का यह विलाप देखकर पाण्डव लोग सचमुच बड़े ही दुखी हुए। सच बात तो यह थी कि धृतराष्ट्र की धूर्तता को समझते हुए भी उनके जाल में फंसना स्वीकार करने से प्रजा के दुख-सुख का ध्यान करना अधिक अच्छा होता। लेकिन अब तो जो होना था वह हो चुका था, महाराज युधिष्ठिर ने बहुत मीठे ढंग से अपनी प्रजा के लोगों को समझाया और कहा कि आप लोगों ने हम पर जो विश्वास प्रकट किया तथा जो प्रेम दिखलाया है, वह हमको बहुत ही सुखी कर रहा है। आप लोग सुख से रहें। नये राजा की आज्ञा माने। अच्छा समय आने पर हम फिर आपकी सेवा करने के लिये यहाँ आ जायेंगे। प्रजा को भली-भाँति समझा-बुझा कर पाण्डवों ने वन की राह ली। एक प्रतापी वंश जो यदि मिलकर चलता तो दूर-दूर तक अपने सुशासन से मनुष्य जाति को सुख पहुँचा सकता था, परन्तु आपसी ईर्ष्या, द्वेष और जलन का यह परिणाम निकला कि केवल कौरव-पाण्डव ही नहीं वरन् हजारों लोगों को विनाश की होली खेलनी पड़ी। जो काम बिना विचारे किये जाते हैं, उनके परिणाम इतने ही भयंकर होते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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