महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
शल्य सारथी बने
युद्ध क्षेत्र से लौटने के बाद मद्रराज शल्य अपने मन की किसी लहर में आज सीधे भीष्म पितामह के दर्शन करने चले गये थे। लौटने लगे तो युधिष्ठिर ने अकेले में घेर लिया। कहा- “मामा तुम्हें पुराने वचन की याद दिलाने आया हूँ। कर्ण के सारथी बन कर उसे खूब निस्तेजित करना।” युधिष्ठिर को वचन देकर देर से लौटे तो नहा निबट कर ताजे होकर मामा आराम से बैठे ही थे कि नौकरों ने कर्ण और दुर्योधन के आने का समाचार दिया। शल्य को उनका आना अखर गया। भीष्म से हुई बातों पर विचार करते हुए वे इस समय एकान्त में रहना चाहते थे। खैर, दोनों जने आये। दोनों का यथोचित स्वागत-सत्कार हुआ। फिर शल्य ने आने का कारण पूछा। दुर्योधन ने यद्यपि बड़ी चतुराई से अपनी बात पेश की फिर भी प्रस्ताव सुनकर शल्य मामा भड़क गये। आंखें निकाल कर गरजते हुए बोले- “सुयोधन, तुम्हें लाज नहीं आती कि तुम अपने मामा से इस पेशेवर सारथी के बेटे का सारथी बनने की बात मुंह से निकालते हो? यह भला अर्जुन के सामने ठहर सकता है? इसके जन्म का ठिकाना नहीं है न जाने किसकी सन्तान है, कहाँ से बहकर आया और तुम्हारे सारथी ने इसे अपना बेटा बनाकर पालपोस लिया। तुम बेकार ही इसका पक्ष लिया करते हो, सुयोधन! मैं इस आदमी को अर्जुन के सामने वैसा ही मानता हूँ जैसा कि सिंह के सामने सियार माना जाता है।” कर्ण सुनकर जल उठे परन्तु अपने ऊपर अनुशासन रखते हुए उन्होंने मुंह से एक शब्द न निकाला। गम्भीर पत्थर जैसा चेहरा बनाकर वह बैठे रहे। दुर्योधन कान दबाये चुप-चाप सुनता रहा। बड़ा काइयां था। मामा जब अपने जी की भड़ास निकाल चुके तो ठंडे मीठे शब्दों में बोला- "मामा, आप बड़े हैं। आपकी बातों को काटने का साहस भी मैं नहीं कर सकता। लेकिन, इस बात पर भी तो विचार करो कि परशुराम जी के शिक्षाश्रम में जिसे भरती किया जाय वह भला किसी ओछे कुल का होगा? ऊपर से आप भले ही गुस्सा हो लें पर भीतर से आप अन्यायी तो नहीं ही हैं, यह मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ। आपके ऐसा विशाल हृदय वाला महान राजनीतिज्ञ और महावीर पुरुष तो मैंने कहीं देखा ही नहीं।" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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