महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
द्रुपद से युद्ध
द्रोणाचार्य के चेले जब हर तरह से कुशल योद्धा बन गये, तब आचार्य ने उनसे अपनी गुरु दक्षिणा मांगी। उनकी मांग यह थी कि मेरा अपमान करने वाले पांचाल के घमण्डी राजा को बांधकर मेरे सामने लाओ। भीष्म पितामह की आज्ञा लेकर सेना सहित राजकुमारों ने पांचाल देश पर चढ़ाई कर दी। अर्जुन की धर्नुविद्या के द्रुपद राजा के वीरों ने घुटने टेक दिये। पांचाल सिपाही भय के मारे तितर-बितर होने लगे और अर्जुन ने आगे बढ़कर राजा द्रुपद को बांध लिया। द्रुपद राजा बन्दी बनाकर द्रोणाचार्य के चरणों में ला पटके गये। इस विजय से पाण्डवों और विशेष कर अर्जुन को बड़ा लाभ मिला। पाण्डवों की यह उन्नति देखकर धृतराष्ट्र और उनके बेटे मन ही मन जल उठे। शासन के मंत्रियों में एक कणिक नाम का मंत्री था। वह राजा धृतराष्ट्र के मन की व्यथा को भली-भाँति समझ गया। एक दिन उसने थोड़ी देर इधर-उधर की ठकुर सुहाती बातें बनाकर धृतराष्ट्र से कहा- "महाराज, बच्चा होने पर भी नाग आखिर नाग ही होता है। आपको अपने बच्चों का भविष्य देखना होगा। आपके बच्चे संख्या में अधिक है, पर भोले हैं। उन्हें ये पाण्डव लोग ठग लेते हैं। मेरी समझ में तो शत्रु को साम, दाम, दण्ड, भेद किसी भी उपाय से समाप्त कर देना ही उचित है।" कणिक मंत्री ने राजा धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों के मन में एक ऐसी कुटिल इच्छा जगा दी कि उसे पूरा करने के लिए वे हर सम्भव या असम्भव काम करने को तैयार हो गये। उन्हें न धर्म की चिन्ता थी, न न्याय की परवाह थी। एकमात्र यही उद्देश्य उनके सामने था कि हस्तिनापुर की राजगद्दी किस प्रकार पाण्डव के कानूनी अधिकार से निकलकर हमारे अधिकार में आ जाये। दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि, कर्ण और दुःशासन आदि के साथ यह सलाह की कि पाण्डवों को किस उपाय से यों समाप्त किया जाये कि सांप मर जाये पर लाठी न टूटे। शकुनि मामा के सलाह से यह निश्चय हुआ कि राजा धृतराष्ट्र को ऊंच-नीच समझाकर उनसे यह कहलाया जाये कि तुम लोगों को विश्राम की जरूरत है, इसलिए कुछ दिनों वारणावत नगर में जाकर सुख से रह आओ, फिर तुम्हारे राज-पाट संभालने के सम्बन्ध में हम लोग विचार करेंगे। पांचाल नरेश द्रुपद को पराजित करने का यश लेकर राजकुमार युधिष्ठिर ने धीरे-धीरे बड़ों के बीच यह बात भी छेड़नी आरम्भ की कि हम लोग बालिग हो गए हैं, इसलिए राज-काज का प्रबन्ध अब हमें फिर से सौंप देना चाहिए। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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