महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
सिन्धु देश में
पंजाब की सैर करता हुआ घोड़ा सिन्धु देश में पहुँच गया। जयद्रथ का बेटा ही वहाँ का राजा था। उसे मां तथा और सब शुभचिन्तकों ने बहुत समझाया कि तुम अर्जुन का स्वागत भले ही न करो पर घोड़े को अपने राज्य से चुपचाप निकल जाने दो। पर वह अभागा अपने पिता को मारने वाले अर्जुन से बदला लेने के जोश में में ऐसा आया कि उसने किसी की एक न सुनी। घोड़ा पकड़े जाने पर अर्जुन ने फिर वही धर्मराज का सन्देश दोहराया। इस पर जयद्रथ का बेटा बोला- “घोड़ा अब मेरे किले से वैसे ही बाहर नहीं निकलेगा जैसे मेरे राज्य में आकर मेरे पूज्य पिता का हत्यारा अर्जुन अपना सिर अपने धड़ पर न रख सकेगा।” सिन्धु के फुर्तीले घोड़े और बहादुर लड़वैये बड़ी आन और शान से लड़े पर अर्जुन के आगे वे टिक न सके। स्वर्गीय जयद्रथ की विधवा पत्नी के सिर फिर अभागा दिन आया। जिस अर्जुन के हाथों से पिता की मृत्यु हुई थी उन्हीं से बेटे ने भी वीर-गति पायी। राजधानी में ऐसा आतंक बना कि सब लोग सन्न रह गये किसी के मुंह से बात तक न फूटती थी। हर एक यही सोचता था कि महाबली अर्जुन अभी राजधानी में प्रवेश करेंगे और यदि दुर्भाग्य से उनका विरोध हुआ तो यह अलकापुरी सी सुन्दर नगरी दिनभर में तहस-नहस हो जायगी। जयद्रथ की विधवा पत्नी ने बड़ी सूझ-बूझ और समझदारी से काम लिया। बेटे की मौत पर रोना-धोना भूल कर वह तुरंत अपने पोते को लेकर पालकी पर बैठी और अर्जुन के पास आयी। जयद्रथ की पत्नी धृतराष्ट्र की पुत्री और अर्जुन की चचेरी बहन थी। अर्जुन उसके आने का समाचार सुनकर स्वयं आगे बढ़ गये। रानी अपने पोते को अर्जुन के पैरों में डालने लगी तो अर्जुन ने उसे चटपट अपनी गोद में लेकर बड़े प्यार से उसका मुख चूमा। बच्चे के सिर पर हाथ फेर कर फिर आंखों में आंसू भर कर अर्जुन ने कहा- “भान्जे को मार कर मैं स्वयं भी बहुत दुखी हूँ बहन। मैंने उसे बहुत समझाया था। लगता है कि विधि के विधान से हम दोनों ही मजबूर थे। तुम घोड़ा वापस कर दो और मैं इस बच्चे का अपने हाथों से राजतिलक करके यहाँ से चला जाऊं।” कच्छ-गुजरात में पाण्डवों का घोड़ा बड़े माल खाता हुआ मौज से घूमा। फिर मध्य प्रदेश से भी सकुशल निकल गया। धीरे-धीरे वह आज के असम प्रदेश की पुरानी राजधानी प्रागज्योतिषपुर के पास जा पहुँचा। वहाँ के राजा से भी अर्जुन को लड़ना पड़ा। लेकिन शीघ्र ही वह काबू में आ गया। पहाड़ी नागा अर्जुन के तीरों की बौछार से ऐसे कांप उठे कि उन्होंने अपने राजा से कहा- “हम मनुष्यों से लड़ सकते हैं देवता से नहीं। ऐसा पराक्रम देवता के अलावा और कोई दिखला नहीं सकता।” अपनी सेना का यह दुर्बल मन देखकर राजा वज्रदत्त ने भी समझदारी से काम लेकर घुटने टेक दिये। अर्जुन ने उससे बड़ा ही मैत्रीपूर्ण व्यवहार किया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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