महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
अर्जुन का वनवास
नारद जी की सलाह पर राजा युधिष्ठिर का बनाया हुआ नियम पालन करके सब भाइयों ने अपनी एकता को अटूट रखा। द्रौपदी ने भी बड़ी सूझ-बूझ और निष्ठा के साथ इस नियम का पालन किया। सब काम ठीक चल रहा था कि एक दिन बानक ऐसे बने कि एक ब्राह्मण रोता-तड़पता पाण्डवों के महलों में आया। दोपहर में खा-पीकर विश्राम करने का समय था। सभी भाई अपने-अपने महलों में या बगीचे वाले घरों में चैन की झपकियां ले रहे थे या अपनी-अपनी रानियों से बातें कर रहे थे। चौकीदार ने ब्राह्मण को युधिष्ठिर महाराज के पास तो जाने न दिया, क्योंकि वह उस समय अस्त्रागार में सो रहे थे और स्वयं पटरानी द्रौपदी देवी उनके पैर दबा रही थीं। तब ब्राह्मण ने अर्जुन के महल पर गोहार लगाई। अर्जुन ने उसकी विपदा सुनी- कुछ चोरों ने सीना-जोरी दिखाकर गरीब ब्राह्मण को लूट लिया और आपके राज्य में कोई मेरी गुहार सुनने वाला भी नहीं। धिक्कार है आपकी वीरता को। अर्जुन ने यह कहकर उसका क्रोध शांत किया कि मैं स्वयं चलकर तुम्हारे चोरों को पकडूंगा। अर्जुन अपना गाण्डीव धनुष और तरकश लाने के लिए उस विशेष अस्त्रागार में गये जिनमें पांचों भाइयों के हथियार और श्रेष्ठ बाणों, तलवारों आदि का भण्डार रहता था। द्वार पर चौकीदार ने हाथ जोड़कर रोका कहा कि महाराज और महारानी इस समय यहीं विश्राम कर रहे हैं। यह सुनकर अर्जुन बड़े धर्म-संकट में पड़े। युधिष्ठिर महाराज के जागने तक अगर रुकते हैं तो ब्राह्मण को दिया हुआ वचन ख़ाली जायगा। ऊंच-नीच विचार कर उन्होंने यही तय किया है कि उन्हें कमरे में आवाज देकर घुस ही जाना चाहिए। एक बार द्वार पर कहा कि भाई, आपत्तिकाल में मैं अपना गाण्डीव लेने आ रहा हूं, पर कोई आहट न मिली। अर्जुन ने जान लिया कि वे लोग सो रहे हैं। उसने द्वार पर पड़ा मोटा परदा हटाया और दबे पांव उनके धनुष-बाण, तलवार आदि जहाँ रखे थे वहाँ गये। उसने महाराज और महारानी की तरफ देखा भी नहीं। उसने अपने हथियार उठाये और जब लौट रहा था तो द्रौपदी रानी की आंख पड़ गई। उन्होंने खम्भों के पीछे अंधेरे में कोई परिछाईं-सी जाती देखी। वह चौंक उठी, और पूछा कौन? महारानी के आवाज देने से सोते हुए युधिष्ठिर की नींद खुल गई। अर्जुन ने बिना देखे अपना नाम और जाने का कारण बतलाया, क्षमा मांगी और जल्दी से बाहर चला गया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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